सेवा में समर्पित व्यक्तियों का धर्मसंघ में होना बड़ी बात : आचार्यश्री महाश्रमण
बीदासर, 14 फरवरी, 2022
तेरापंथ धर्मसंघ और वीर भूमि बीदासर का ऐतिहासिक संबंध है। अनेकों इतिहासों की साक्षी बीदासर की वीर भूमि पर माघ शुक्ल त्रयोदशी की सुबह एक ओर नव इतिहास का सृजन हुआ। 25 वर्ष पूर्व हेम द्विशताब्दी समारोह के अवसर पर आज के दिन पाँच साधु, नौ साध्वी और तीन समणी सहित कुल 17 लोगों ने आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी से संयम रूपी रतन ग्रहण किया था। परम पावन आचार्यश्री महाश्रमण जी के सान्निध्य में 17 में से 10 की उपस्थिति में उनके संयम पर्याय के 25 वर्षों की संपन्नता पर समारोह मनाया गया। आचार्यप्रवर की मंगल सन्निधि और अपने दीक्षा स्थल पर दीक्षा की रजत जयंती का अवसर पाकर सभी अपने आपको आह्लादित और गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी के पट्टधर आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि शास्त्र में कहा गया है कि आत्मा ही सुखों की, दुखों की कर्ता और विकर्ता है। आत्मा मित्र भी बन जाती है और आत्मा अमित्र भी बन जाती है। दुष्प्रवृत्ति में संलग्न आत्मा अमित्र बन जाती है। सुप्रतिष्ठित अच्छी दिशा और सद्-प्रवृत्ति में संलग्न आत्मा हमारी मित्र बन जाती है। संयम जीवन ग्रहण करना, चारित्र को अभिगृहीत करना और उसका पालन भी करना यह अपनी आत्मा का मित्र बनना होता है। आज से 25 वर्ष पूर्व इसी बीदासर क्षेत्र में परमपूज्य गुरुदेव आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी के सान्निध्य में हेम दीक्षा द्वि-शताब्दी का कार्यक्रम हुआ। यह तेरापंथ की एक विरल घटना थी। अद्वितीय कार्यक्रम था। इससे हेमराज जी स्वामी सिरियारी वालों का महिमा मंडन भी होता है। उनकी दीक्षा के बाद हमारे धर्मसंघ में दीक्षा वृद्धि वर्धमान हुई थी।
आज मुनि हेमराजजी की दीक्षा के 225 वर्ष हो रहे हैं। मैं मुनि हेमराजजी स्वामी का स्मरण करता हूँ। हमारे धर्मसंघ को ऐसे महान व्यक्तित्व प्राप्त हुए। उनकी दीक्षा का कार्यक्रम दीक्षा के कार्यक्रम से मनाया गया। गुरुदेव तुलसी ने उनको शासन महास्तंभ के नाम से अलंकृत किया था। 25 वर्ष पहले यहीं दीक्षा कार्यक्रम आयोजित हुआ था। 25 वर्षों बाद उसी स्थान पर दीक्षा दिवस मनाने का अवसर आए यह हर किसी को मौका नहीं मिलता। दस ऐसे साधु-साध्वी, समणी हैं, जिनका धवल समारोह दीक्षा भूमि में ही उपक्रम आया है।
गुरुदेव तुलसी से अलग आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने दीक्षा समारोह का आयोजन किया था। मैं तो आचार्यश्री के साथ था ही नहीं। हमारे धर्मसंघ में कई छोटी उम्र के दीक्षार्थी दीक्षित होते हैं और अपनी कार्यशक्ति से मोटे-मोटे से बन जाते हैं। धर्मसंघ हमारा आसरा है, जहाँ हमारा लालन-पालन होता है। आज कई चारित्रात्माएँ बहिर्विहार में भी है, जहाँ भी हो हम सब निकट ही हैं। हमारे धर्मसंघ का सौभाग्य है कि जहाँ चारित्रात्माएँ और समणियाँ दीक्षित हो रहे हैं। वे भी धर्मसंघ के अंग हैं। वे भी करने वाले कितनी सेवा करते हैं। शिक्षा के द्वारा भी प्रगति कर लेते हैं। धर्मसंघ में अच्छे कार्यकारी बन जाते हैं। जब भी याद कर लो, तत्परता से दौड़कर आ जाते हैं। जो कार्य सौंपा जाता है, कार्य संपन्न भी करते हैं। विज्ञप्ति का कार्य हो या बड़ी-बड़ी संस्थाओं को संभालना कितनी सेवा करते हैं। विहार में भी कितना सहयोग करते हैं। बहिर्विहारी साधु-साध्वियाँ भी कितनी जवाबदारी से ध्यान देकर सेवा करते हैं। भेंटणा भी कितना लेकर आती है, वो भी संघ की सेवा ही है। उनकी कितनी भावना-भक्ति रहती है। सेवा की भावना रहती है। समणियाँ भी न्यारा में काम करती हैं। कोई घटना भी घट जाती है, तो भी कितना मनोबल रखते हैं। धर्मसंघ के अंग बनकर रहना भी जीवन के लिए अच्छी बात होती है। आज जिनकी दीक्षा की 25 वर्ष की संपूर्णता है, उनसे कितना आश्वासन मिलता है। मनोबल के साथ व्यवस्थाओं को संभाल लेते हैं। ऐसे व्यक्ति जिनके पास दिमाग भी है, मनोबल भी है और कार्य करने का तरीका भी है। कार्य करते-करते कुशलता को प्राप्त कर लिया है। सेवा के अनेक रूप है। दिमाग से व्यवस्थाओं में सहयोग देने का श्रम करते हैं। योजना के साथ कार्य संपन्न करते हैं। सेवा में तारतम्य रह सकता है। सबमें समर्पण का भाव रहे। कोई काम हो, दूसरों के लिए आश्वासन बने रहते हैं। ऐसे सेवा करने वालों को बार-बार धन्यवाद मिलना चाहिए कि कैसे विकट स्थिति में भी सेवा देते हैं। हर समस्या को सुलझा देते हैं या समस्या को लेकर ही आ जाते हैं। ऐसे व्यक्ति धर्मसंघ में होते हैं, तो धर्मसंघ के लिए बड़ी बात हो जाती है। ये संयम जीवन है। 25 वर्ष की संपन्नता पर अपना आकलन भी किया जा सकता है। कि 25 वर्ष कैसे बीते? कोई परदोष तो नहीं लगा है, लगा है तो प्रायश्चित के द्वारा शुद्धि कर लें, 25 वर्ष में मैंने आगम कितने पढ़े? जो दूसरे कामों में लगे हैं, वो तो वो ही काम करते रहें। स्वाध्याय अच्छी चीज है, पर जहाँ सेवा की प्रधानता है, वहाँ स्वाध्याय को भी गौण कर दो। सेवा को प्रथम स्थान दो। आगे के और जो वर्ष मिले संयम पर्याय की निर्मलता के वर्ष बने और साधना आगे बढ़े।
संयम रत्न देने वाला कोई भी हो, संयम रत्न मिलना खास बात है। संयम रत्न की सुरक्षा रहे, संघ-निष्ठा रहे। अच्छी साधना करें, संघ की जितनी हो सके अच्छी सेवा करें। जितना बल है, उसका अच्छा प्रयोग करें। जो स्वभाव से शांत है, सेवा करने वाले हैं बहुत अच्छी बात है। हमारा संयम-पर्याय निर्मल रहे, समणी आचार का भी अच्छा पालन करते रहें। साध्वीप्रमुखाश्रीजी आज यहाँ नहीं हैं, 25 वर्ष पहले भी मूल कार्यक्रम में नहीं थी। उनका स्वास्थ्य अनुकूल-अच्छा रहे। यह हमारी मंगलकामना है। न्यारा वाले भी रीढ़ की हड्डी की तरह संघ सेवा करते हैं। मैं सबके प्रति मंगलकामना करता हूँ। सभी अपने-अपने पर्याय से शासन की सुषमा को बढ़ाते रहें।
पूज्यप्रवर के श्रीचरणों में संयम यात्रा के 25 वर्ष पूर्ण करने वाले मुनि विश्रुतकुमारजी, मुनि कीर्तिकुमारजी, मुनि अक्षयकुमारजी, मुनि देवार्यकुमार जी, साध्वी मलयश्रीजी, साध्वी चैत्यप्रभाजी, साध्वी सौरभयशाजी, साध्वी मुदितयशाजी, साध्वी ललितयशाजी, समणी पावनप्रज्ञा जी ने अपने-अपने जीवन के संस्मरणों की अभिव्यक्ति दी।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।