त्याग, तपस्या और संयम का मूल लक्ष्य है चित्त शुद्धि : आचार्यश्री महाश्रमण
बीदासर, 12 फरवरी, 2022
महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी के दीक्षा प्रदाता ‘शासन स्तंभ’ मंत्री मुनिश्री सुमेरमल जी स्वामी ‘लाडनूं’ के जीवन-वृत्त ‘पुण्यात्मा’ का लोकार्पण आचार्यप्रवर के सान्निध्य में हुआ। इस अवसर पर आचार्यप्रवर ने फरमाया कि पुण्यात्मा शब्द ही गरिमापूर्ण है। मुनिश्री के सरदारशहर चातुर्मास में उन्हीं के द्वारा मुझे और उदितकुमार जी को गुरुदेव तुलसी के निर्देशानुसार दीक्षित होने का अवसर मिला। आचार्यप्रवर ने मंत्री मुनिश्री सुमेरमल जी की तुलना हेमराज जी स्वामी से करते हुए कहा कि कुछ अंशों में मंत्री मुनि हेमराज जी स्वामी की प्रतिकृति प्रतीत होते हैं। हेमराजजी स्वामी का अपना व्यक्तित्व था तो सुमेरमलजी स्वामी का भी अपना व्यक्तित्व था। दोनों ने तेरापंथ धर्मसंघ में दीक्षा वृद्धि में अपना योगदान दिया था। आज के दिन धर्मसंघ में ऐसा कोई साधु-साध्वी नहीं है, जिसने चार पुरुषों को दीक्षा दी हो। उनका जीवन-वृत्त अपने आपमें महत्त्वपूर्ण है। मंत्री मुनिश्री मेरे दीक्षा प्रदाता, वैराग्य संपोषक, प्रशिक्षणदाता एवं संस्कारदाता थे। मुनि उदित कुमार जी को मंत्री मुनिश्री के सान्निध्य में रहने का मौका मिला। मुनि उदित कुमार जी में भी मंत्री मुनिश्री की विशेषताएँ दिखाई देती हैं। उन्हीं की तरह ज्योतिष विद्या, मुहूर्त प्रदान करने की क्षमता, व्याख्यान शैली, तत्त्व समझाने की क्षमता, बात करने का तरीका, तेरापंथ के सिद्धांतों को समझाने की कला है। इस प्रकार मंत्री मुनिश्री का व्यक्तित्व कुछ अंशों में उदित कुमार जी में दिखाई देता है। मंत्री मुनिश्री का जीवन-वृत्त सामने आना संतोष की बात है। इसके पठन से पाठकों को धार्मिक और आध्यात्मिक प्रेरणा मिलती रहे। आचार्यप्रवर ने मंत्री मुनिश्री की स्मृति में रचित गीत ‘मंत्री मुनि का स्मरण करूँ’ का मधुर संगान किया। जीवन-वृत्त के लेखक मुनि उदित कुमार जी ने कहा कि शासन स्तंभ मंत्री मुनिश्री सुमेरमल जी स्वामी तत्त्वज्ञ, आगम मर्मज्ञ, गंभीर चिंतक, दूरदर्शी, कुशल अनुशासक एवं पुण्यशाली व्यक्तित्व के धनी थे। इस पुस्तक का नाम पुण्यात्मा इसलिए सार्थक है क्योंकि मंत्री मुनि ने जो कार्य हाथ में लिए वो सफलता को प्राप्त हुए। उन्होंने जितना श्रम किया उससे कई गुना सफलता उन्हें प्राप्त हुई। इस पुस्तक के लिए अगर किसी की प्रेरणा कहूँ तो वो परमपूज्य आचार्यश्री महाश्रमण जी की है। योगक्षेम वर्ष के पश्चात मंत्री मुनि की कोलकाता यात्रा के समय आचार्यश्री महाश्रमण जी द्वारा कहे गए शब्दों की फलश्रुति यह मंत्री मुनि का जीवन-वृत्त पुण्यात्मा है। मंत्री मुनि से मुझे यह प्रेरणा मिली कि कृतज्ञता कैसे अभिव्यक्त होती है जो हमारे जीवन में माधुर्य को घोल देता है। मंत्री मुनि कहा करते थे कि जिसका पुण्य प्रबल हो उसके हर कार्य सफल होते हैं और पुण्य की प्रबलता तभी आएगी जब हमारी साधना और आराधना अच्छी चलेगी। मुनि अनंत कुमार जी ने भी अपनी भावनाएँ व्यक्त की। मुनि उदित कुमार जी द्वारा लिखित इस पुस्तक को जैन विश्व भारती के कुलपति बच्छराज दुगड़, धर्मचंद लुंकड़, जीवनमल मालू, जीतमल जैन और कन्हैयालाल गिड़िया ने पूज्यप्रवर को जीवन-वृत्त की प्रति उपहृत की। अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि यह पुरुष अनेक चित्तों वाला होता है। आदमी की भावधारा में कई बार एक ही दिन में बहुत परिवर्तन आ जाता है। हमारे भीतर भावों का जगत है। सद्भाव भी है, तो असद्-भावों का मूल भी भीतर में है।
मोहनीय कर्म भाव जगत का एक मूल तत्त्व है। भाव जगत मोहनीय कर्म के औदारिक भाव और उपशम, क्षय, क्षयोपशम भाव से निष्पन्न होता है या जुड़ा हुआ है। मोहनीय कर्म का उदय भाव और उसका विलय, इन दोनों में युद्ध सा भी कई बार चलता है। कभी उदय भाव बलवान बन जाता है, तो कभी मोहनीय विलय बलवान बन जाता है। ज्यों-ज्यों मोहनीय कर्म प्रबल होता है, त्यों-त्यों आदमी का स्वभाव, व्यवहार, आचार, रहन-सहन दुष्प्रभावित हो जाता है। ज्यों-ज्यों मोहनीय कर्म हल्का पड़ता है, तो हमारे संस्कार, हमारा व्यवहार, आचार, हमारा चित्त सुप्रभावित होते जाते हैं। सद्भाव, मोहनीय कर्म के विलय से प्राप्त होते हैं। असद् या दुर्भाव मोहनीय कर्म के उदय से निष्पन्न होते हैं। यह संघर्ष संपूर्णतया तो आगे के गुणस्थानों में विराम को पाता है।
आठ कर्मों में सेनापति या राजा मोहनीय कर्म होता है। जैसे शरीर में शीश का जो स्थान होता है, वैसे ही मोहनीय कर्म का कर्मों में होता है। मोहनीय कर्म नहीं रहेगा फिर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय कर्म विशेष आगे नहीं रहेगा। शेष चार अघाति कर्म तो बहुत भले हैं। जैसे खरगोश हो, आत्मा को इनसे खतरा नहीं है। मोहनीय कर्म से बड़ा खतरा है। यह चंडकौशिक सर्प के समान है। चित्त शुद्धि के लिए मोहनीय कर्म को हल्का करना और एक दिन क्षय को प्राप्त करा देना होता है। हमारे जीवन में शरीर, वाणी और मन भी है। कर्म के बंधन में मन की बड़ी सक्षम भूमिका प्रतीत हो रही है। मन-चित्त निर्मल, शुद्ध रहे। भाव शुद्ध रहे यह अपेक्षा है। भावों से आदमी नरक या स्वर्ग में जाने के कर्मों का भी अर्जन कर लेता है। मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। जैसी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि हो जाती है। ध्यान भी चित्त शुद्धि के लिए हो। प्रेक्षाध्यान का उद्देश्य भी यही है। जीवन विज्ञान व अणुव्रत भी कुछ अंशों में चित्त शुद्धि के लिए होते हैं। हम सब चित्त शुद्धि को ऊँचाई की ओर ले जाने का प्रयास करें। कषायमंदता, कषाय विजय में गति हो। यह साधना का मूल तत्त्व है। आत्मा पर जो मोहनीय कर्म की गंदगी आई हुई है, उसे कषायमंदता से दूर करें। आत्मा तो अपने आपमें शुद्ध ही है।
स्वर्ण को अग्नि की प्रक्रिया से उसके मूल रूप को उजागर कर लिया जाता है, इसी प्रकार तपस्या-साधना के द्वारा चेतना के मूल स्वरूप को उभारा जा सकता है। शरीर को शुद्धि का व्यवहार की दृष्टि से कुछ मूल्य हो सकता है, पर चेतना की शुद्धि का बहुत-बहुत महत्त्व होता है। त्याग, तपस्या और संयम का मूल लक्ष्य है, चित्त शुद्धि। हमारी चित्त शुद्धि का प्रयास होता रहे और दूसरों की चित्त शुद्धि में जितने सहयोगी बन सकें, हमारे लिए अच्छी बात हो सकती है। कई वर्षों के बाद बीदासर में इतना बड़ा समागम हुआ है। गुरुकुलवास का दायरा विशाल हो गया। अब धीरे-धीरे विहार हो रहा है। हम जहाँ भी रहें, हमारी चित्त शुद्धि की साधना बढ़ती रहे।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में पुष्पा बैंगाणी, ज्ञानशाला ज्ञानार्थियों ने सुंदर प्रस्तुति दी। साध्वी प्रणवप्रभाजी, साध्वी भव्ययशाजी ने भी अपनी भावना श्रीचरणों में अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।