जीवन में आभा लक्ष्मी सदैव विराजमान रहे : आचार्यश्री महाश्रमण
अहिंसा यात्रा के द्वारा जनमानस में सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति की ज्योत जगाने वाले महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रात: विहार कर सरस्वती शिशु मंदिर विद्यालय पधारे। इससे पूर्व आचार्यप्रवर का नीमच प्रवास युवाचार्य अवस्था में सन् 2004 में हुआ था। नीमचवासी अटूट श्रद्धा एवं उल्लास के साथ अहिंसा यात्रा के स्वागत में जगह-जगह पर पूज्यप्रवर का वंदे गुरुवरम घोष के साथ स्वागत कर रहे थे।
आचार्यप्रवर ने मंगल प्रवचन करते हुए फरमाया कि आदमी के घर में दिव्य लक्ष्मी प्रवेश करना चाहती है। गृहस्थ के लिए लक्ष्मी का प्रवेश-समावेश मूल्यवान होता है। हर व्यक्ति मन से अपने परिवार में लक्ष्मी का निवास चाहता है और लक्ष्मी की पूजा भी करता है। व्यक्ति धन और वैभव के रूप में लक्ष्मी को चाहता है परंतु आचार्यप्रवर ने लक्ष्मी का दूसरा रूप आभा लक्ष्मी के रूप में बताया। भीतर के वैभव के रूप में श्री आभा लक्ष्मी धन है। आभा मंडल की आभा लक्ष्मी के रूप में हो सकती है। लक्ष्मी आना चाहे वह धन के रूप में या आभा के रूप में दोनों तरफ से इष्ट होती है। आचार्यप्रवर ने एक दृष्टांत से समझाया कि लक्ष्मी का स्वरूप चंचल है। सत्य भगवान का रूप है लक्ष्मी भले चले जाए पर सत्य हमेशा पास रहे। जहाँ सत्य है वहाँ से लक्ष्मी कभी नहीं जा सकती। हम सत्य रूपी महापुरुष को सदैव पकड़कर रखते हैं तो लक्ष्मी वहाँ पर सदैव विराजित रहती है।
लक्ष्मी साधना, चरित्र की आभा, उदारता की आभा, सदाचार की आभा, विचारों की आभा, आचार की आभा आदि विभिन्न अवयवों की आभा के रूप में हमारे में विराजमान रहे। सच्चाई की प्रदीप्त आभा बड़ी तेजस्वी आभा होती है। शास्त्रकार ने कहा कि लक्ष्मी घर में आना चाहती है तो दरवाजा खुला रखे या बंद रखें। वह अभागा आदमी होता है जो आती हुई लक्ष्मी को डंडे से रोकता है। अच्छी शिक्षा, विनय और मान की शिक्षा दे उस शिक्षा देने वाले व्यक्ति को रोकना स्वयं का नुकसान करना है। लक्ष्मी को रोकने की चिंता नहीं करनी चाहिए। यह जो लक्ष्मी है दुनिया की एक शक्ति है, यह शक्ति भी आदमी के लिए आवश्यक होती है। लक्ष्मी के रूप में लब्धि आ रही हो तो उसे रोकने का प्रयास नहीं करना चाहिए। अध्यात्म के रूप में आ रही है तो उसे स्वागत के साथ लाना चाहिए। आने वाली लक्ष्मी को रोकना एक तरह से अहित करना होता है। हम भी अध्यात्म की दिशा में आगे बढ़ें।
आचार्यप्रवर ने आगे फरमाया कि 2004 में परमपूज्य आचार्य महाप्रज्ञ जी के साथ नीमच आना हुआ था। आगामी 7 जुलाई को आचार्य महाप्रज्ञ जी का जन्म दिवस भी है। यात्रा में गुरुओं की छत्रछाया बनी रहती है जो दिखाई भले न दे पर उसका अस्तित्व हो सकता है। आचार्यप्रवर ने आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी को विनय भाव के साथ वंदन किया।
37 दिनों के बाद साध्वीप्रमुखाश्री जी से आध्यात्मिक मिलन के अवसर पर आचार्यप्रवर ने फरमाया कि जब हम चक्कर का रास्ता लेते हैं तोे साध्वीप्रमुखाश्री जी के विहार का रास्ता अलग हो जाता है। आज 42 ठाणा से साध्वियों का मिलना हुआ है। कई बार जब छींकी टूटती है तो किसी को रोटी मिल जाती है। गुरुकुलवास में साध्वीप्रमुखाश्री जी का अभाव हुआ और नीमच को लाभ मिल गया। साध्वीप्रमुखाश्री जी के गुरुकुलवास में समावेश होने पर आचार्यप्रवर ने कहा कि हमारे धर्मसंघ में साध्वी सुमदाय भी सर्वोच्च है।
गुरुकुलवास मानो साध्वीप्रमुखाश्री जी के आने से और ज्यादा खिल गया है। अब जल्दी पृथक विहार की बात ना हो। अध्यात्मिक मिलन पर आचार्यप्रवर ने कहा कि यह दुनिया का क्रम है कि कभी मिलना और कभी दुराव हो जाता है। जहाँ अध्यात्म का मिलन है वह तो हमेशा अपने रूप में अच्छा होता है। आत्मा से आत्मा का मिलन होता रहे। साध्वीप्रमुखाश्री जी ने इस अवसर पर कहा कि गगन में नखत तारे हैं, धरा पर दीप जले हैं, तुम्हारी सन्निधि बिन यह सभी निस्तेज लगते हैं। उन्होंने कहा कि शेष काल में गुरुदेव का सान्निध्य बहुत कम मिला है। हैदराबाद के बाद तो गिनती के दिन गुरुदेव के साथ रहे हैं। गुरु के दर्शन बिना सब फीका-फीका लगता है। यह चाँद-सूरज, सितारे तभी चमकदार लगते हैं जब गुरु की सन्निधि हो, नहीं तो यह निस्तेज हो जाते हैं। गुरुदेव का ज्ञान, दर्शन, चरित्र और परिश्रम उत्तम है।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में नीमचवासियों की तरफ से तेरापंथ महिला मंडल, कन्या मंडल, सभा अध्यक्ष मांगीलाल भंसाली, पंकज भंसाली, धर्मेन्द्र बीकानेरिया, ज्ञानशाला ज्ञानार्थियों ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी। आचार्यप्रवर ने प्रवचन की संपन्नता पर नीमच के श्रावक-श्राविकाओं को सम्यक्त्व दीक्षा ग्रहण करवाई। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने नीमच के बारे में कहाएक नीम चंदन से कम नहीं यह नीमच लंदन से कम नहीं।