आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

चैतन्य-केंद्रों का जागरण : भाव-तरंगों का परिष्कार

प्रश्‍न : वासना-विजय के लिए किस चैतन्य-केंद्र पर ध्यान करना चाहिए? उस संदर्भ में साधना के दूसरे प्रयोग क्या हो सकते हैं?
उत्तर : ब्रह्मचर्य का संबंध ब्रह्मकेंद्र के साथ है। ब्रह्म का अर्थ हैआत्मा। आत्मरमण के लिए इस केंद्र का अनिवार्य उपयोग है। इसका स्थान हैजिह्वा। जीभ का संबंध केवल खाने और बोलने से ही नहीं, कामवासना के साथ भी है। कामना के दो छोर हैंजिह्वेंद्रिय और जननेंद्रिय। इन दोनों इंद्रियों पर नियंत्रण करने में सक्षम साधक ही वासना का विजेता बन सकता है। कुछ लोगों का अभिमत है कि ध्यान के लिए इंद्रिय-निग्रह आवश्यक नहीं है। ध्यान का अभ्यास करने से वह स्वयं फलित होता है। यह विचार एक द‍ृष्टि से ठीक हो सकता है। पर हर साधक इतना समर्थ नहीं होता कि वह संयम की साधना के बिना ध्यान से प्राप्त होने वाली ऊर्जा का सही उपयोग कर सकता है। संयम के अभाव में ऊर्जा का प्रवाह विपरीत दिशागामी हो जाए तो अनर्थ की संभावना को टाला नहीं जा सकता। इसलिए इंद्रिय-संयम भी आवश्यक है। उस व्यक्‍ति का वासना से मुक्‍त होना कठिन है, जिसने जीभ पर नियंत्रण नहीं पाया। जीभ की विद्युत-तरंगें शांत हैं तो जननेंद्रिय की विद्युत-तरंगें भी शांत रहेंगी। यद्यपि काम-केंद्र को उत्तेजित करने में सभी इंद्रियाँ निमित्त बनती हैं, पर उन सबमें जिह्वेंद्रिय का स्थान प्रमुख है।
ब्रह्मचर्य के संबंध में आज तक कुछ भी लिखा गया, जिस किसी ने लिखा, उसने आहार-संयम पर अवश्य लिखा है। यह विषय केवल स्थूल संबंध का नहीं है। जीभ और जननेंद्रिय के बीच रहे आंतरिक संबंध का है। इस आंतरिक संबंध के बारे में खोज हुई और उसके परिणाम साधना की द‍ृष्टि से अचूक रहे। इंद्रिय-संयम, खाद्य-संयम, व्यस्त और नियमित जीवन तथा ध्यान के प्रयोगों से व्यक्‍ति वासना पर विजय पा सकता है। व्यावहारिक द‍ृष्टि से भी उसे कुछ सावधानियाँ बरतने की जरूरत है। उनके साथ ब्रह्मकेंद्र पर ध्यान का दीर्घकालिक अभ्यास ब्रह्मचर्य को साधने का अमोघ साधन है।


आध्यात्मिक विकास के लिए अनुपम अवदान

केंद्र-विशुद्धि विशुद्ध है, कंठकूप अवधार।
शुभ जालंधर-बंध से, सहज सुधा-संचार॥
केंद्र परम आनंद का, देता सुख एकांत।
हृदय-चक्र हृच्चेतना से संबंद्ध नितांत॥
तमहर तैजस-केंद्र यह, है मणिपूर ललाम।
नाभिकमल आस्थान से, खुलते नव आयाम॥
स्वास्थ्य-केंद्र जो चक्र है, मूलाधार महान्।
इसको जागृत कर बढ़ें, करें सत्य संगान॥

प्रश्‍न : वर्तमान युग की अहम समस्या हैअसंतुलन। थोड़ी-सी प्रतिकूलता का अनुभव होते ही व्यक्‍ति का संतुलन समाप्त हो जाता है। समूह-चेतना से जुड़ा हुआ एक भी व्यक्‍ति असंतुलित होता है तो उसका प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में सब पर होता है। मानसिक असंतुलन की समस्या को स्थायी और ठोस समाधान देने के लिए आप ध्यान का कौन-सा प्रयोग सुझाते हैं?
उत्तर : शरीर-शास्त्र की द‍ृष्टि से कंठमणि (थायरायड ग्लैंड) का बहुत महत्त्व है। शरीर में चय और अपचय की क्रिया इसके आधार पर चलती है। साधना की द‍ृष्टि से यह विशुद्धि-केंद्र का स्थान है। भावना की स्वच्छता के लिए इस केंद्र पर ध्यान करना बहुत आवश्यक है। नीचे के केंद्रों पर ध्यान करने से उभरने वाली समस्याओं का समाधान इसके द्वारा हो सकता है। आवेश आदि की वृत्तियों के शोधन में भी इसका सक्रिय उपयोग है। स्वरयंत्र का शिथिलीकरण और विशुद्धिकेंद्र की प्रेक्षाइन दोनों का योग मणिकांचन योग है। जिस साधक को यह योग उपलब्ध हो जाता है, वह जीवन की अनेक कठिनाइयों को पार कर उस बिंदु पर पहुँच जाता है, जहाँ से उसे अपनी मंजिल साफ दिखाई देने लगती है। हठयोग की एक क्रिया हैजालंधर-बंध। ठुड्डी को कंठकूप में लगाने से वह क्रिया होती है। उस अवस्था में अमृत के स्राव जैसा अनुभव होता है। वह स्थान भी विशुद्धि-केंद्र के आसपास का ही स्थान है। मन की चंचलता मिटाने के लिए भी इस केंद्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मानसिक असंतुलन की समस्या का सीधा समाधान हैस्वरयंत्र की शिथिलता और जालंधर-बंध। विशुद्धि-केंद्र पर ध्यान और कंठ का कायोत्सर्ग करने से विकल्प शांत होते हैं। असंतुलन तभी होता है, जब मन में विकल्प उठते हैं। विकल्प कम हुए, मन शांत हुआ और असंतुलन की स्थिति समाप्त हो गई।

(क्रमश:)