संबोधि
ु आचार्य महाप्रज्ञ ु
बंध-मोक्षवाद
भगवान् प्राह
(20) अनासक्ति: पदार्थेषु, विरतिर्गदिता मया।
जागरूका भवेद् वृत्ति:, अप्रमादस्तथात्मनि॥
पदार्थों में जो अनासक्ति होती है, उसे मैंने ‘विरति’ कहा है। आत्मोपलब्धि के प्रति जो जागरूक वृत्ति होती है, उसे मैं ‘अप्रमाद’ कहता हूँ।
(21) अशुभस्यापि योगस्य, त्यागो विरतिरिष्यते।
देशत: सर्वतश्चापि, यथाबलमुरीकृता॥
अशुभ योग का त्याग करना भी विरति कहलाता है। वह विरति यथाशक्तिअंशत: या पूर्णत: स्वीकार की जाती है।
वैराग्य से व्यक्ति अनासक्त होता है। अनासक्त व्यक्ति का पदार्थों से आकर्षण सहज ही छूट जाता है। वह केवल तत्कालिक आसक्ति ही नहीं छोड़ता किंतु उसके अंकुर को जला डालता है। त्याग उसका उपाय है। त्यागी व्यक्ति का मन नि:स्पृह बन जाता है। वह भविष्य में भी आसक्ति का संकल्प नहीं करता। त्याग के बिना अविरति का मार्ग बंद नहीं होता। पदार्थों के उपभोग व अनुपभोग का प्रश्न मुख्य नहीं है, मुख्य बात है अविरति की। अवरति उपभोग के बिना भी जीवित रहती है। त्याग उसे जीवित नहीं रहने देता।
मुनि अविरति का सर्वथा त्याग कर देता है। उन्हें जो मिले उसी में संतुष्ट रह जाते हैं। लेकिन सभी व्यक्ति मुनि नहीं होते। उनके लिए यथाशक्य अविरति के परिहार का विधान है। वे क्रमश: विरति की ओर बढ़ें और अविरति को कम करें।
(22) क्रोधो मानं तथा माया, लोभश्चेति कषायक:।
एषां निरोध आख्यातोऽकषाय:। शान्तिसाधनम्॥
क्रोध, मान, माया और लोभइन्हें कषाय कहा जाता है। इनके निरोध को मैंने ‘अकषाय’ कहा है। वह शांति का साधन है।
(23) सर्वासा×च प्रवृत्तीनां, निरोधोऽयोग इष्यते।
अयोगत्वं समापन्ना, विमुक्तिं यान्ति योगिन:॥
सब प्रकार की प्रवृत्तियों के निरोध को ‘अयोग’ कहता हूँ। अयोग अवस्था को प्राप्त योगी मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।
(24) पूर्वं भवति सम्यक्त्वं, विरतिर्जायते तत:।
अप्रमादोऽकषायश्चाऽयोगो मुक्तिस्ततो ध्रुवम्॥
पहले सम्यक्त्व होता है, फिर विरति होती है। उसके पश्चात् क्रमश: अप्रमाद, और अयोग होता है। अयोगावस्था प्राप्त होते ही आत्मा की मुक्ति हो जाती है।
(क्रमश:)