अनासक्‍ति की भावना दुर्गति से बचा सकती है : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अनासक्‍ति की भावना दुर्गति से बचा सकती है : आचार्यश्री महाश्रमण

अध्यात्म साधना केंद्र, महरौली,
11 मार्च, 2022
अध्यात्म जगत के शिखर पुरुष आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि उत्तराध्ययन आगम के 36 अध्ययन हैं। इसके आठवें अध्ययन में बताया गया है कि यह संसार अधु्रव है, अशाश्‍वत है। श्‍लोक में बताया गया है कि संसार कैसा है? संसार में बदलाव होते रहते हैं, इसलिए अध्रुव है। हमेशा नहीं रहता इसलिए अशाश्‍वत है। जिसका जो जीवन है, वो अध्रुव है। संसारी अवस्था में नया-नया जन्म मिलता रहता है। एक ही जीवन में भी परिवर्तन आ जाता है। कभी बच्चा है, कभी युवा है, कभी वृद्ध है। अशाश्‍वत है। शाश्‍वत तो आत्मा है। दीर्घकालीन जीवन तो मिल सकता है, पर सदा रहेगा ये
नहीं हो सकता। आत्मा सदा रहेगी। संसार दु:ख बहुल है। जीवन में भी दु:ख आ जाते हैं। जन्म, बुढ़ापा, रोग और मृत्यु दु:ख है। और भी दु:ख आ सकते हैं। भौतिक सुख भी वास्तव में नहीं हैं, यह तो दु:ख का कारण हो सकता है। मृत्यु भी है, आगे जाना होता है। ऐसा कौन सा उपाय है कि दुर्गति में न जाना पड़े। एक प्रश्‍न उठाया गया कि कौन सा वह कर्म-आचरण है जिसको
करके हम दुर्गति में न जाएँ। वह आचरण हैराग-मोह से बचें। द्वेष से भी बचें। रहो भीतर, जीयो बाहर। आत्मस्थ रहें। मोहात्मक स्नेह से बचें, समता की साधना चले। व्यवहार के काम करने भी होते हैं, पर भीतर में समता के भाव रहे। पापों से बचने का प्रयास रखें। तो दुर्गति से बचने की बात हो सकती है। जो हिंसा करता है, उसकी दुर्गति होती है। पंचेंद्रिय जीवों की हत्या न करें। खान-पान में शुद्धि रहे। अहिंसा के पथ पर चले। परिग्रह में आसक्‍ति न हो। माया, छल-कपट न करें, यह एक द‍ृष्टांत से समझाया कि इसमें दुर्गति हो सकती है। जीवन में नैतिकता, ईमानदारी रहे। संसार में रहते हुए गृहस्थ कमल की तरह निर्लिप्त रहे। अनासक्‍ति दुर्गति से बचने का प्रयास है। मेरापन-ममत्व का भाव न रहे। पूज्यप्रवर ने साध्वीप्रमुखाश्री जी के स्वास्थ्य की मंगलकामना हेतु मंत्र-जप का प्रयोग करवाया। ज्ञानशाला की प्रशिक्षिकाओं ने महाश्रमण अष्टकम् का सुमधुर संगान किया।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि शुभ प्रवृत्ति से पुण्य का बंध होता है।