संबोधि
ु आचार्य महाप्रज्ञ ु
बंध-मोक्षवाद
भगवान् प्राह
(25) आध्यात्मिकविकासस्य, कोटिद्वयमुदाहृतम्।
सम्यक्व्रतमप्रमाद:, प्रथमा कोटिरिष्यते॥
(26) ततश्चौपशमिकी श्रेणिर्वा क्षायिकी भवेत्।
उपशान्त: कषाय: स्याद्, क्षीणो वा कोटिरग्रिमा॥ (युग्मम्)
आध्यात्मिक विकास की दो कोटियाँ बतलाई गई हैं। पहली कोटि में तीन तत्त्व हैंसम्यक्त्व, व्रत और अप्रमाद।
सम्यक्त्व को उपलब्ध होने वाला चौथे गुणस्थान का अधिकारी हो जाता है। व्रत को उपलब्ध होने वाला पाँचवें अथवा छठे गुणस्थान का अधिकारी हो जाता है। अप्रमाद दशा को उपलब्ध होने वाला सातवें गुणस्थान का अधिकारी हो जाता है।
सातवें गुणस्थान से आगे दो श्रेणियाँ हैंविकास के दो मार्ग हैं। एक है ओपशमिक श्रेणी और दूसरी है क्षपक श्रेणी। जो कषायों का उपशमन करते हुए आगे बढ़ता है, उसकी श्रेणी औपशामिक होती है। जो कषायों को क्षीण करता हुआ आगे बढ़ता है, उसकी श्रेणी क्षायिक होती है।
विकास के दो रूप हैंआत्मिक व भौतिक। भौतिक विकास के विविध क्षेत्र हैंशारीरिक, आर्थिक, शैक्षणिक, शासनात्मक आदि। आत्मिक विकास क्रमश: विकास के चरणों का स्पर्श करते हुए चरम विकास पूर्णता तक पहुँचना है। वहाँ पहुँचने के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता। आत्मा अपने मौलिक स्वरूप में अवस्थित होकर सदा-सदा के लिए कृतकृत्य हो जाता है। फिर उसका आवागमनसंसार परिभ्रमण शांत हो जाता है।
भौतिक विकास की कोई मर्यादा नहीं है, न पूर्णता है और न शांति है। वह सदा अतृप्त रहता है। इसलिए इस सच्चाई की अनुभूति के बाद आत्मा में एक सहज छटपटाहट होती है, अपने स्वरूप-दर्शन की। अनेक व्यक्ति संसार का सम्यक् निरीक्षण करने के बाद उससे मुक्त होने के लिए एक नए पथ का चुनाव कर उस पर चल पड़ते हैं। अतीत में भी अनेक साधकों ने सत्य का अनुभव किया है, विकास के चरम शिखर को छुआ है, वर्तमान में भी उस पर आरूढ़ होकर चल रहे हैं और भविष्य में भी चलते रहेंगे।
भगवान् महावीर ने मेघकुमार के सामने आध्यात्मिक विकास की दो कोटियों का निरूपण किया है। पहली कोटि में मिथ्यात्व अविरत और प्रमाद से मुक्ति है। जब तक कोई व्यक्ति मिथ्यात्वमिथ्या धारण से मुक्त नहीं होता तब तक वह संसार के कीचड़ से बाहर नहीं निकल सकता। यह मिथ्यात्व का संस्कार अनंत जन्मों से अर्जित हैअनित्य में नित्यत्व की बुद्धि, अशुचि में शुचित्व का बोध तथा अनात्मा में आत्मा का भाव। इस चक्र से बाहर निकलना कठिन ही नहीं अपितु कठिनतम है। अनंत आत्माओं का इसी में आदि और अंत होता रहता है। संत से शिष्य ने पूछामैं परमात्मा होना चाहता हूँ, क्या मैं हो सकता हूँ? गुरु ने कहा‘मैं को छोड़ दो तो हो सकते हो, दूसरे-तीसरे एवं सभी ने यही प्रश्न किया और सबको यही उत्तर दिया। तब किसी ने पूछाआप हो सकते हैं, गुरु ने कहामैं भी हो सकता हूँ‘मैं’ को छोड़कर। आखिर में गुरु ने कहा‘मैं’ का अर्थ तुम समझें नहीं। ‘मैं’ का अर्थ हैमोह, अहंकार, मैं और मेरापन। बस, यह मिथ्यात्व है।
(क्रमश:)