हमारे धर्मसंघ की विशिष्ट विभूति थी शासनमाता साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी : आचार्यश्री महाश्रमण
अध्यात्म साधना केंद्र, 20 मार्च, 2022
शासनमाता का पूज्यप्रवर सन्निधि में मुख्य स्मृति सभा का आयोजन। महानंद के साधक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने उनकी स्मृति में श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए फरमाया कि प्राणी जन्म लेता है, जीवन जीता है और एक समय आता है कि वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। शास्त्रकार ने इस जीवन की नश्वरता को चित्रित करते हुए कहा है कि जैसे कुश के अग्रभाग पर ओस की बूँद लटकती है, वह कितने समय तक रह सकती है। बहुत अल्प समय तक रहती है, उसी प्रकार मनुष्यों का जीवन है, एक दिन समाप्ति को प्राप्त हो जाता है। यह एक सृष्टि की नियति व्यवस्था है कि जन्म लिया है, तो मृत्यु होगी ही होगी। जन्म लेकर मनुष्य मरेगा ही नहीं तो इतने लोग इस धरती पर कैसे समाहित होंगे। हर प्राणी की यही मर्यादा है कि आए हो तो कुछ समय रहो। पर एक दिन आगे जाना पड़ेगा। किसी को लंबा काल मिल जाता है तो किसी को जीने का अल्पकाल भी मिलता है। विशेष बात है कि आदमी जीवन बढ़िया जीए। जीवन और मृत्यु दो तट हो गए। बीच में जो धारा बहती है, वह जीवन धारा है। यह धारा कैसे निर्मल और गतिमान रहे यह धारा उपयोगी बनी रहे। यही खास बात है। अनेक लोग होते हैंजिनकी जीवनधारा निर्मल रहती है। गतिमता और उपयोगिता भी रहती है।
आज हम जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ की एक विशिष्ट विभूति की स्मृति सभा मना रहे हैं। वह विशिष्ट विभूति शासनमाता साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी हैं। वे जन्म लेकर इस मनुष्य जन्म में आई थीं। लाडनूं के बैद परिवार से उनका संबंध था। कुछ वर्षों बाद हमारे धर्मसंघ में दीक्षित हो गई। परमपूज्य आचार्य तुलसी के उपपात में वे दीक्षित हुई। वि0सं0 1998 में जन्मी और 2019 आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन केलवा में दीक्षित हुई। वह दिन तेरापंथ द्विशताब्दी का दिन था।
ग्यारह वर्ष तक साधारण साध्वी के रूप में रही। वे गुरुकुलवास में ही रही। उन्होंने उन ग्यारह वर्षों का शिक्षा के क्षेत्र में अच्छा लाभ उठाया, बहुत विकास किया। आचार्य तुलसी के जीवन से इनके जीवन की कई समानताएँ हैं। आचार्य तुलसी को भी ग्यारह वर्ष तक सामान्य साधु के रूप में गुरुकुलवास में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। ग्यारह वर्ष दीक्षा के बाद वे हमारे धर्मसंघ में साध्वीप्रमुखा के रूप में नियुक्त हुई। गुरुदेव तुलसी ने उनको दीक्षित, शिक्षित और साध्वीप्रमुखा के रूप में गंगाशहर में वि0सं0 2028 माघ कृष्णा-13 को साध्वीप्रमुखा के रूप में दायित्व सौंपा, नियुक्त किया। वे आठवीं साध्वीप्रमुखा बनी और 50 वर्षों से भी अधिक समय तक वो साध्वीप्रमुखा के रूप में रही। हमने लाडनूं में 30 जनवरी, 2022 को उनका अमृत महोत्सव मनाया था। बड़ा भव्य आयोजन हो गया था। आचार्य तुलसी भी हमारे धर्मसंघ में एकमात्र आचार्य हुए हैं, जिन्होंने 50 वर्षों से अधिक समय तक रह कर सेवा की थी। उनका भी 50 वर्ष की संपन्नता पर अमृत महोत्सव मनाया गया था।
वे तीन आचार्यों के शासनकाल में रही। एक विशिष्ट बात है कि किसी साध्वीप्रमुखा को इतने लंबे काल तक साध्वीप्रमुखा के रूप में सेवा देने का मौका मिला था। आचार्य तुलसी की बड़ी कृपा दृष्टि उन पर रहती थी। उन्हें महाश्रमणी अलंकरण तो वि0सं0 2035 में गुरुदेव तुलसी ने राजलदेसर में दे दिया था। बाद में उन्हें महाश्रमणी पद व संघ महानिर्देशिका का पद भी दिया था।
मैंने भी उनको गोहाटी में असाधारण साध्वीप्रमुखा के रूप में स्थापित किया था। साध्वीप्रमुखा के 50 वर्षों की संपन्नता का अवसर आया तो उन्हें शासनमाता का सम्मान दिया। तेरापंथ धर्मसंघ में वे अद्वितीय साध्वी हैं, जिनको शासनमाता का सम्मान मिला। उनके जीवन में कुछ विशेषताएँ थीं। उनमें अनेक प्रतिभाएँ थीं, साहित्यिक प्रतिभा थी। कितने ग्रंथों का लेखन-संपादन किया। उनमें कविता बनाने का वैदुष्य था। उनके भाषण में भी वैदुष्य था। हिंदी-संस्कृत भाषा का तो अच्छा ज्ञान था ही, अंग्रेजी भाषा का भी कुछ अध्ययन किया हुआ था। राजस्थानी हमारी आम भाषा है ही। साध्वीप्रमुखाजी में ज्ञान का विकास था। उनका एक महत्त्वपूर्ण कार्य था, साध्वियों की सार-संभाल व्यवस्था का। पृष्ठभूमि निर्माण में उनका एक बड़ा योगदान था। वे कुशल व्यवस्थापिका थी। कुछ अंशों में विशिष्ट विभूति साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी थी। समण श्रेणी के विकास में भी उन्होंने योगदान दिया है।
संतों से भी उनका संपर्क था। आचार्यप्रवर ने स्वयं की बाल्यावस्था का दिल्ली का प्रसंग साझा किया। उनमें संपादन की विशेष कला थी। अनेक रूपों में वे तीन आचार्यों की सेवा करने वाली साध्वीप्रमुखा थी। पाँच सौ से अधिक नवदीक्षित साध्वियों का उन्होंने केशलोचन कर दिया था। लंबी यात्राएँ उन्होंने की थी। हमारे धर्मसंघ में उच्च स्तर पर रहने वाली वे साध्वीप्रमुखा थी।