शांति और अहिंसा से अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है: आचार्यश्री महाश्रमण
अध्यात्म साधना केंद्र, 21 मार्च, 2022
साधना के श्लाका पुरुष आचार्यश्री महाश्रमण जी ने शासनमाता के पंचदिवसीय स्मृति सभा के अंतिम दिन फरमाया कि कर्मवाद अध्यात्म के वादों में एक वाद है, सिद्धांत है। अध्यात्म की दुनिया का एक स्तंभ है। हम जैन दर्शन को देखें, जैन दर्शन में अनेकवाद है। आत्मवाद जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है। आत्मा है, वह शरीर से पृथक् वाली चीज है। आत्मा शाश्वत है। उसे नष्ट किया नहीं जा सकता।
संसारी आत्मा का पुनर्जन्म भी होता है। और भी धर्मों में आत्मा की बात मिल सकती है। आत्मवाद के बाद दूसरा सिद्धांत हैµकर्मवाद। आत्मा कर्म करती है, उसका फल भोगती है। सुख-दुःख की कर्ता स्वयं आत्मा है। कर्मवाद आत्मवाद से जुड़ा हुआ सिद्धांत है। आत्मवाद न हो तो कर्मवाद कहाँ टिकेगा।
जैन आगमों-ग्रंथों में कर्म का वर्णन मिलता है। जैन दर्शन का लोकवाद का भी सिद्धांत है। छः द्रव्यों वाला लोक है। लोक से संपृष्ट अलोक भी है। अलोक तो अनंत है। सागर में एक बूँद के समान अलोक में लोक है। लोकवाद में अद्योलोक, मध्य लोक, ऊर्ध्वलोक आदि अनेक बातें आती हैं। क्रियावाद भी एक सिद्धांत है। उसके भी अनेक वर्णन मिलते हैं।
इन वादों में एक हैµकर्मवाद। ‘जैसी करणी वैसी भरणी, सुख-दुःख स्वयं मिलेगा।’। जैसा कर्म जीव बद्ध करता है, वैसा उसका फल भी उसे मिलता है। कर्मवाद इतना निष्पक्ष है कि मैं कर्मवाद को न्यायधीश के रूप में देख रहा हूँ। बड़े से बड़ा प्राणी हो या छोटे-से-छोटा प्राणी सबको किए कर्म का फल मिलेगा। वहाँ सब निष्पक्ष है। फल मिलने में देर हो सकती है, पर अंधेर नहीं है।
जैन दर्शन में आठ कर्म बताए गए हैंµहम आदमी के व्यक्तित्व को आठ कर्मों के आलोक में विख्यात कर सकते हैं।
शासनमाता कनकप्रभाजी का 17 मार्च को होली के दिन इस परिसर में महाप्रयाण हो गया। नवमें दशक में वो चल रही थी। आठ महासती के कार्यकाल में सर्वाधिक कार्यकाल शासनमाता का रहा। जैसे आचार्यों से सर्वाधिक आचार्य काल गुरुदेव तुलसी का रहा था। जैसे आचार्य तुलसी जीवन के 22वें वर्ष में आचार्य बन गए थे तो जीवन के 31वें वर्ष में साध्वी कनकप्रभाजी साध्वीप्रमुखा बन गई थी। वे नियमित गुरुदेव तुलसी की उपासना करती थी। गुरुदेव की महर नजर साध्वीप्रमुखाजी पर रहा करती थी।
साध्वीप्रमुखाश्री जी के मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का अच्छा क्षयोपशम था। वे चिंतनशील और प्रतिभावान भी थी। दो चीजें हैंµक्षयोपशम और पुण्य। पुण्य का संबंध तो भौतिकता से है। क्षयोपशम का संबंध आंतरिक शुद्धि से है। पुण्य से तो कर्म बँधते हैं, क्षयोपशम से कुछ कर्म हलके होते हैं। मोहनीय कर्म का तो क्षयोपशम है, तभी आदमी साधु बनता है। मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से वो आगे बढ़ रही थी।
अंतराय कर्म शक्ति से संबंधित है। शासनमाता की शारीरिक क्षमता अच्छी थी। कितनी यात्राएँ कर ली थीं। कितना लेखन आदि का श्रम करती थी। प्रायः वे निरोग रही थी। कुछ प्रतिकूलताएँ भी स्वास्थ्य संबंधी आई थीं। उनके असातवेदनीय प्रायः दूर रहा, सातवेदनीय अनुकूल रहा। नाम कर्म-गौत्र कर्म तो तेरापंथ की साध्वीप्रमुखा बनना और 50 वर्ष तक बने रहना, यह पुण्याई के बिना तो संभव नहीं हो सकता। और भी आगे विकास किए। कितने पद-अलंकरण मिले। ये पुण्यवत्ता के बिना मिलने मुश्किल लग रहे थे। नाम कर्म-गौत्र कर्म का शुभ रूप से उदय था, योग था। आयुष्य कर्म भी प्रबल था। नौवें दशक में आ गई थी।
मनुष्य गति का आयुष्य और धर्म के माहौल में उनका जन्म हुआ। लाडनूं जैसे शहर में रहने का मौका मिला। कर्मवाद के संदर्भ में हम साध्वीप्रमुखाजी को व्याख्यात कर सकते हैं कि उनके कर्मों की स्थिति कैसी थी। साध्वी समुदाय पर तो उनका प्रभाव था, पर संत समुदाय पर भी उनका प्रभाव था। बड़े-बड़े संत भी उनका मान-सम्मान रखते थे। श्रावक-श्राविकाओं की भी उनके प्रति अच्छी भावना थी। सम्मान-श्रद्धा की भावना रहती थी।
तेरापंथ समाज में ही नहीं, अन्य लोगों में भी उनके प्रति सम्मान का भाव था। वे अन्य संप्रदाय के साधु-साध्वियों से मिलती रहती थी। कर्मवाद के सिद्धांत से अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्होंने पिछले जन्मों में तपस्या-साधना की है, उसका फल यहाँ पुण्यवत्ता और साधना के रूप में आया है। आत्मा के पिछले कई जन्मों का संबंध रह सकता है। पुण्य का फल यहाँ मिल सकता है।
हमारे धर्मसंघ की एक विशिष्ट विभूति चली गई है। संसार में आई थी, हमारे धर्मसंघ में आई थी, साधना, सेवा की, ज्ञान और प्रशासनिक प्रबंधन कार्यों में अपना योगदान दिया। आचार्यों को सहयोग दिया, सेवा की। अपनी वत्सलता-विनम्रता से मानों दूसरों को प्रभावित किया। ऐसे साध्वीप्रमुखाजी को हमने खो दिया। अंतिम दिनों में उनका आत्मबल, मनोबल मजबूत था। वे शांत चित्त से पोढ़ाई रहती। चेहरे पर प्रसन्नता भी रहती। 16 मार्च तक तो वो बात करती थी, समझती थी, अच्छा क्रम था। पहचान भी रही थी। आचार्यप्रवर ने साध्वीप्रमुखाश्री की आत्मा के प्रति आध्यात्मिक विकास की मंगलकामना की।
शुभाशंषा
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि वही वास्तव में शास्त्रज्ञ होता है, जिसका मन सदैव शांत रहता है। शासनमाता का व्यक्तित्व शांति से ओतप्रोत था। वे स्वयं हर समय शांति का अनुभव करती थी। जो उनके परिसर या आभावलय के आसपास रहते उन्हें भी वे प्रसन्नता से सराबोर कर देती। वे दूसरों को शांत रहने की प्रेरणा भी देते रहते थे।