शासनमाता के महाप्रयाण पर भावाभिव्यक्ति
श्रद्धेया साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी के महाप्रयाण की बात जैसे ही हमारे तक पहुँची, उपस्थित सभी संतों की आँखें नम हो गई। मन उदास सा हो गया। साध्वियों की मनःस्थिति को तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। दूसरे ही क्षण चिंतन चला कि आत्मा तो अमर है। जिसकी निधि ही अनंत ज्ञान और अनंत दर्शन है वो तो भला अनंत का ही सहचर होगा। फिर उस अनंत का अंत कैसे संभव है? अतः उदासी ठीक नहीं।
शासनमाता, असाधारण साध्वीप्रमुखा, महाश्रमणी, संघमहानिदेशिका आदि अलंकारों से उनका व्यक्तित्व जितना ही भारी या उतनी ही ऋजुता उनके स्वभाव, व्यवहार एवं विचारों में परिलक्षित होती थी। इस बात को जानने में मुझे ज्यादा समय नहीं लगा। वैरागी के रूप में हम मुमुक्षु भाई अनेक बार शासनमाता की पर्युपासना हेतु जाया करते थे। अन्यान्य कार्यों में व्यस्त होते हुए भी वे जो हम पर वात्सल्य उँडेलती थी, उसे शब्दों का परिधान नहीं पहनाया जा सकता। उनकी प्रेरणाएँ आज भी मेरे कर्ण-कोटरों में गूँजित होती है। दीक्षित होने के बाद भी वे हम बालमुनियों की इतनी विनम्रता से अभिवादन करती तो ऐसा ही लगता कि मानो उन्होंने अपने मान-कषाय को पराजित कर दिया। एक महत्त विभूति में ऐसी उत्कृष्ट विनम्रता को देखना कोई सामान्य बात नहीं। उनके जीवन का प्रत्येक प्रसंग एक बोध-पाठ है, जीवननिदर्शन है तथा आत्मालोकमदायिनी प्रेरणा है।
मैं उन अल्प-संख्यक सौभाग्यशाली बाल-साधुओं में से एक हूँ, जिसे एक ऐसी दिव्यात्मा की प्रत्यक्ष सन्निधि मिली, प्रेरणा मिली तथा उनके उपकंठ में बैठकर आहार करने का भी अवसर मिला, ठीक उसी तरह जैसे एक माँ अपने बच्चे को स्नेहपूर्वक भोजन कराती है। ऐसी शासनमाता साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी को समर्पित एक श्लोकµ
संप्रदत्तवती धर्मसंघाय या प्रसादनाम्।
विशिष्टातिविशिष्टा सा, प्रमुखा कनकप्रभा।।1।।
उच्छ्वासे याऽपि निःश्वासे, केवलं संघचिन्तनम्।
नित्यमकृत सा साध्वी, प्रमुखा कनकप्रभा।।2।।
यस्यास्त्रय आचार्या, लाभान्विताश्च सेवया।
असाधारणसाध्वी सा, प्रमुखा कनकप्रभा।।3।।
उपषघोपकण्ठेऽहं, यस्सा अकुर्वि भोजनम्।
सा मातृहृदयासाध्वीप्रमुखा कनकप्रभा।।4।।
प्राप्नोतु परमानन्दं, प्राप्तोनु परमं पदम्।
शासनमातृसाध्वी सा, प्रमुखा कनकप्रभा।।5।।