साध्वी गण में समा गई

साध्वी गण में समा गई

महाप्रयाण शासनमाता का, सुन उदासी छा गई,
सुन उदासी छा गई, मायूसी गण में आ गईऽऽऽ
महानिदेशिका महाश्रमणी जी, गण बगिया महका गई,
जीवन पावन खिलता गुलशन, भिक्षु शासन चमका गई।
भिक्षु शासन चमका गई, सबके हृदय को लुभा गई।।आं।।

नाम कला और काम कलात्मक, गण में फैलाई कलाऽऽऽ
कार्यशैली थी कलामय, गुरुओं के मन भा गई।।

साध्वी गण की शान थी तुम, साध्वी गण की आन थीऽऽऽ
साध्वी गण की प्राण थी तुम, साध्वी गण में समा गई।।

क्षमता तेरी थी गजब की, ममता का नहीं पार थाऽऽऽ
नम्रता-समता की सूरत, करुणा òोत बहा गई।।

परख गहरी, दृष्टि पैनी, चिंतन गणति नित चलाऽऽऽ
तब साहित्य ये जग दिवाना, ज्ञान खजाना लुटा गई।।

अमल धवल था आभामंडल, अविरल स्नेह झरना झरताऽऽऽ
विनय समर्पण था अनूठा, संयम से सरसा गई।।

असाधारण साध्वीप्रमुखा, आशीर्वर गुरु का मिलाऽऽ
असाधारण जीवन तेरा, दुनिया देख चकरा गई।।

अमृत महोत्सव चयन दिन का, मन भावन वो सीन थाऽऽ
गुरु किरपा की अमृत विरखा, अमृत रस बरसा गई।।

उग्र विहार कर शीघ्र पधारे, अति किरपा गुरुदेव की
अंतिम श्वास गुरु चरण शरण में नव इतिहास रचा गई।
राजधानी दिल्ली की धरा पर, अलविदा तुम कह गई।।

लय: सांवरी सूरत पे---