समाधायक संत पुरुष को प्रणाम
जैन शासन में व्यवस्था की दृष्टि से समय-समय पर अनेक पंरपराओ का उल्लेख प्राप्त है। उनमें मुख्य तीन परंपराएं रही हैं-
गणाचार्य - परंपरा
वाचनाचार्य - परंपरा
युगप्रधान - परंपरा
नंदी सूत्र में आर्य सुधर्मा से दूष्यगणी तक के आचार्यों की युगप्रधान के रूप में अभिवंदना की गई है। चूर्णिकार के अनुसार सूत्रकार ने 23 से 43 तक की गाथाओं में नामोल्लेखपूर्वक युगप्रधान स्थविरों को नमस्कार किया है। वहां कुछ के विषय में विशेष विवरण भी प्राप्त होता है।
आर्य सुहस्ती तक के आचार्य गणाचार्य व वाचनाचार्य दोनों पदों का निर्वहन करते थे। वे गण की सारणा - वारणा भी करते तथा शैक्षणिक व्यवस्थाओं का दायित्व भी संभालते थे। कालांतर में कुछ कारणों से यह व्यवस्था बदल गई। गणाचार्य व वाचनाचार्य के कार्य विभक्त हो गए। चरित्र की सुरक्षा का दायित्व निभाने वाले गणाचार्य कहलाते तथा श्रुत की परंपरा को अक्षुण्ण रखने वाले आचार्य वाचनाचार्य कहलाते। जो आचार्य विशेष लक्षण युक्त व प्रभावशाली होते वे युगप्रधान कहलाते फिर चाहे वे गणाचार्य हो या वाचनाचार्य। इस परंपरा के आधार पर कहा जा सकता है कि आचार्य महाश्रमण गणाचार्य भी है क्योंकि आप एक गण की एक संघ की चारित्र शुद्धि हित सारणा-वारणा करते हैं। आप श्रुतधर है इसलिए वाचनाचार्य भी हैं।
युगप्रधान के पीछे आपका अतीत और वर्तमान का कर्तृत्व बोल रहा हैं। आपके नेतृत्व में भी शिकरीय ऊंचाई है। युग का नेतृत्व वही कर सकता है जो युगीन संभावनाओं को वर्तमान परिधान दे सके। आप युगीन मूल्यों की स्थापना के लिए कृत संकल्प है। व्यक्ति व समाज के बीच स्वस्थ संबंध स्थापित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। ह्नदय परिवर्तन का प्रायोगिक प्रशिक्षण दे रहे हैं। आपकी मुस्कान भरी स्नेहिल नजर प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। इस आकर्षण का हेतु है आध्यात्मिक विकास, आभामंडल की पवित्रता। संयम की चेतना से भावित आपका कण-कण सर्वजनहिताय- सर्वजसुखाय की मंगलकामना से ओतप्रोत है। आपके ये विशेष गुण ही आपश्री को युगप्रधान पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए मुखरित हो रहे हैं।
नंदी सूत्र में युगप्रधान आचार्यों की स्तुति में अंतिम युगप्रधान दूष्यगणि के सम्बन्ध में कहा गया है कि वे अनेक विशेषताओं के धनी थे। चूर्णिकार व टीकाकार ने भी अपनी सहमति प्रदान करते हुए कहा है- वे भाषा के ज्ञाता थे, प्रावचनिक रूप में पटु और शास्त्रार्थ के व्याख्यान में निपुण थे। वे अत्यंत शांत, मृदु और समाधिवान थे। आचार्य महाश्रमणजी भी दूष्यगणि की तरह अनेक विशेषताओं से अभिमण्डित है। भगवान् महावीर के 2621 वर्ष बाद भी धरती पर ऐसे इन्सान का होना हमारे लिए सौभाग्य की बात है।
भाषा के ज्ञाता - आचार्य महाश्रमण महावीर के भाषा सम्बंधित निर्देशों का उपयोग सहित जागरूकता से पालन करते हैं। आपके आदेश, आपके निर्देश, संघीय व्यवस्था की दृष्टि से कुछ कार्यों की अनापत्ति स्वीकृति, आपका इंगित, आपके सुझाव दसवे आलियं के सातवें ‘वक्कसुद्धि’ नामक अध्ययन में महावीर की वाणी के आधार पर युगप्रधान शय्यंभव ने जो भाषा सम्बंधित शिक्षण दिया है आर्यवर उसके पारगामी है।
प्रवचनपटु - आचार्य महाश्रमण एक कुशल प्रवचनकार है। आचार्य दूष्यगणि की तरह आपका प्रवचन चित्त को समाधि देता है। सामाजिक पारिवारिक और राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान देता है। आगमों की सरल व्याख्याएं सुनकर लोग अपने-आपमें धन्य, कृतपुण्य हो जाते हैं। प्रवचन के मध्य सप्रसंग संस्कृत-प्राकृत के श्लोक कहानियां, दृष्टांत और संस्मरण आदि एक ओर प्रवचन को सरल व सरस बना देते हैं वहीं दूसरी ओर श्लोकादि की व्याख्याएं दिल को छू जाती है। दूष्यगणि की तरह आपका प्रवचन भी लोग तल्लीनता से सुनते हैं। केवल सुनते ही नहीं तद्नुरूप आचरण करने का प्रयास भी करते हैं।
अंहिसा यात्रा के दौरान जब आप मार्ग में स्थित लोगों के लिए अल्प समय के लिए प्रवचन करते तब भी लोग उसे सुनकर खडे़-खड़े ही आपश्री के सन्मुख बीड़ी के बण्डल तोड़ देते, शराब छोड़ देते। यात्रा के हर पड़ाव पर आपने त्रिसूत्रीय कार्यक्रम के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराईयों के दरवाजे खटखटाए। नशे में मूर्च्छित मनुष्य को जगाया। हिंसा में विश्वास रखने वाले लोगों के मन में अहिंसा मैत्री और करूणा के अंकुर प्रस्फुटित किए। भाई-भाई के बीच नफरत की दीवार को समाप्त करने का प्रयास किया।
मृद शांत और समाधिवान- आचार्य महाश्रमण का व्यवहार युगप्रधान आचार्य दूयगणि की तरह अत्यन्त मृदु है। आपका मन शांत व चित्त प्रशांत है। आपकी यह सन्तता धर्मगुरुओं के बीच आपको संत शिरोमणि के रूप में प्रतिष्ठित करती है। न केवल अहिंसा यात्रा के दौरान अपितु जीवन के हर मोड़ पर आपने ऐसे निर्णय लिए, ऐसे कार्य किए जिससे कभी भी आपकी सामाधि खण्डित नहीं हुई। इस प्रकार के निर्णयों में एक निर्णय था- ‘मैं संघ का हूं संघ में रहूंगा।’ आप जिन संतो के साथ में थे वे संत संघ से अलग हो रहे थे। अलग होने से पहले उन्होंने आपसे पूछा-मुनि मुदित बोलो तुम क्या करोगे? आपने बड़े शांत भाव से कहा- मैं संघ का हूं, संघ में रहूंगा। इस प्रकार विचलन भरी घड़ियों में समाधिवान व्यक्ति ही ऐसे निर्णय ले सकता है। आपके इस एक निर्णय ने आचार्यों के दिल में अपना स्थान बना लिया। उसके बाद आपके विकास का ग्राफ वर्धमान होता गया।
पंडित दलसुख भाई मालवणियाजी ने आचार्य तुलसी के कर्तृत्व की मीमांसा करते हुए कहा था- आचार्य तुलसी को उनके संघ ने उन्हें युगप्रधान पद दिया। यह निरर्थक नहीं है केवल प्रशंसा नहीं हैं। आचार्य महाश्रमणजी के सम्बंध में भी मैं कहना चाहूंगी कि 30 जनवरी 2022 शासनमाता साध्वी प्रमुखाश्रीजी ने आपश्री के लिए युगप्रधान पद की उद्घोषणा कर संघ को कृतार्थ कर दिया। उद्घोषणा सुनकर चतुर्विध धर्मसंघ में आनंद की लहर छा गई। कृतज्ञता के भाव से भरा तेरापंथ धर्मसंघ मानो कृतार्थ हो गया। इस संदर्भ में अनेक धर्म गुरुओं, राजनयिकों, सामाजिक संगठनों से जुड़े लोगों के अनुमोदन भरे पत्र पढ़कर सीना गौरव से फूल गया।
आपका आगम संपादन का गुरुत्तर कार्य, आपकी सापेक्ष दृष्टि, अनाग्रही वृत्ति, समन्वय की मनोवृत्ति इन सबसे ऊपर गुरुओं के प्रति समर्पण व आत्मा के प्रति विनम्रता आपकी एक विशिष्ट पहचान बनाती है। एक सम्प्रदाय के आचार्य होकर भी सम्प्रदायातीत चेतना का विकास आपको अनेक रूपों में व्याख्यायित करता है।
आपकी मुस्कानः एक खुशी
आपका मौनः एक दिशा।
आपका संकेतः एक दर्शन
आपकी नाः एक बोध।
आपकी हाः एक समाधान देती है।
ऐसे समाधायक युगप्रधान सन्त पुरुष को प्रणाम।