अनीति से उपार्जित धन अर्थ नहीं अर्थाभास है: आचार्यश्री महाश्रमण
जोरावरपुरा, 6 जून, 2022
महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी दो दिवसीय नोखा प्रवास सुसंपन्न कर नोखा के ही उपक्षेत्र जोरावरपुरा स्थित तेरापंथ भवन पधारे। मुख्य प्रवचन में श्रमण परंपरा के शिखर पुरुष आचार्यश्री महाश्रमण जी ने पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि धर्म शब्द प्रसिद्ध है। धर्म शब्द के अनेक अर्थ हो जाते हैं। जहाँ धर्म एक संदर्भ में आत्म-शुद्धि का साधन है। धर्म का एक अर्थ आत्म-साधना है। धर्म का दूसरा अर्थ संप्रदाय भी हो सकता है। तीसरा अर्थ कर्तव्य भी हो जाता है।
आत्मशुद्धि की साधना में अहिंसा, संयम, संवर, तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र यह सारा धर्म है। संप्रदाय धर्म में जैन, बौद्ध, ईसाई आदि धर्म आ जाते हैं। कर्तव्य धर्म में राष्ट्र धर्म, राज्य धर्म समाज धर्म आदि आ जाते हैं। आत्मशुद्धि की साधना भी दो प्रकार की हो जाती है। एक अणगार धर्म, दूसरा अगार धर्म। साधु धर्म में महाव्रतों को मानना अनिवार्य होता है। अगार धर्म, गृहस्थ धर्म में धर्म तो वही है, पालन की मात्रा में अल्पता रहती है। श्रावक स्थूल रूप में अहिंसा-सत्य आदि का त्याग करता है। साधु व श्रावक दोनों ही आत्म साधना के साधक हैं। एक मोटी माला एक छोटी माला। गृहस्थ अणुव्रत-बारहव्रत का पालन कर लें। अणुव्रत के नियम तो जैन-अजैन कोई भी पाल सकता है।
पुरुषार्थ चतुष्टयी-अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष-ये चार चतुवर्ग हैं। गृहस्थ में अर्थ और काम के साथ धर्म भी चाहिए, मोक्ष की साधना भी होनी चाहिए तो जीवन अच्छा रह सकता है। यह एक प्रसंग से समझाया कि सामान्य धर्म की चार बातें हैं-सुपात्र में दान दो। ज्ञान दान, अभय दान भी अच्छा है। दूसरी बात है-गुरुओं के प्रति विनय रखो। तीसरी बात-सब प्राणियों के प्रति दया रखिए। पाप कार्यों से अपनी आत्मा की व दूसरों की आत्मा की रक्षा करना दया है। चौथी बात है-व्यवहार न्यायपूर्ण होना चाहिए। नैतिकता रहे। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने फरमाया था कि दो शब्द हैं-अर्थ और अर्थाभास। न्याय से उपार्जित धन अर्थ है। अन्याय-अनीति से अर्जित किया गया पैसा अर्थाभास है।
राजा होता है, उसके तीन कर्तव्य होते हैं-सज्जनों की रक्षा करना, दुर्जनों- असज्जनों पर अनुशासन करना व आश्रित प्रजा का भरण-पोषण करना। न्यायपूर्ण बात हो। दूसरों का हित हो, ऐसा विधि-विधान करने में रुचि रखना। श्रीलक्ष्मी का मद नहीं करना चाहिए। अंतिम बात है-संतों की संगति करना चाहिए। अच्छी बात जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए। जीवन में गलत संस्कार नहीं आने चाहिए। अच्छे ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिए। राजा हो या प्रजा ये सामान्य सी बातें जीवन में उतारने का प्रयास करता चले तो ये जीवन भी अच्छा और आगे का जीवन भी अच्छा होगा। उम्र ज्यादा आ जाए तो आगे के जीवन पर विशेष ध्यान दें। वर्तमान जीवन बढ़िया होगा तो आगे का जीवन भी अच्छा हो सकेगा। धर्म का संचय करना चाहिए। आगे की टिफिन तैयार करें। साधु और श्रावक का तीसरा मनोरथ है-अपस्विमांतक संलेखना-संथारा मुझे आए। जीवन में धार्मिकता रहे तो आगे का जीवन भी कल्याणकारी बन सकता है। आज जोरावरपुरा आना हुआ है। अच्छा श्रद्धा का क्षेत्र है। जनता में खूब धार्मिक भावना रहे।
शासन गौरव साध्वी राजीमती जी ने बताया कि जीवनशैली कैसी होती है, यह आचार्यप्रवर के जीवन की कला से सीख सकते हैं। श्रेष्ठ जीवन वह है, जो कम से कम ले और ज्यादा से ज्यादा दे। साध्वी कुसुमप्रभाजी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। पूज्यप्रवर के स्वागत-अभिवंदना में तेरापंथ सभाध्यक्ष राजेंद्र मरोठी, तेयुप अध्यक्ष सुरेंद्र बुच्चा, तनीषा बुच्चा, तेरापंथ टाइम्स के कार्यकारी संपादक दिनेश मरोठी, तेरापंथ महिला मंडल, कन्या मंडल, स्थानीय पार्षद नारायण सिंह राजपूत, जेठुसिंह राजपूत, महिला मंडल अध्यक्ष स्नेहलता मरोठी, ज्ञानचंद मरोठी, कनक अजय बुच्चा, यश बुच्चा, मोनिका बुच्चा, कनक-पवन बुच्चा, अजीत मरोठी ने अपनी भावना अभिव्यक्ति की। जोरावरपुरा के तीन जोड़ों ने आजीवन अब्रह्मचर्य का व्रत लिया। तेयुप व महिला मंडल द्वारा त्याग-तपस्या की भेंट श्रीचरणों में प्रस्तुत की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया। दिन भर के प्रवास के पश्चात आचार्यप्रवर ने सायं में विहार कर नोखा गाँव पधारे।