आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के 103वें जन्म दिवस पर प्रज्ञा पुंज आचार्यश्री महाप्रज्ञजी
संसार में आने वाले को एक दिन निश्चित जाना पड़ता है। परंतु जो व्यक्ति अपनी कर्मजा शक्ति का जागरण कर कुछ करिश्मा दिखा जाते हैं वे जन-जन के दिल दिमाग में अपना स्थान बना लेते हैं। ऐसे ही महापुरुष थे तेरापंथ धर्मसंघ के दशमेश आचार्यश्री महाप्रज्ञजी। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का जन्म नाम नथमल था। उनका जन्म झुंझनू जिले के टमकोर गाँव में तोलारामजी चोरड़िया के घर माता बालूजी की कुक्षी से हुआ था। बाल्यकाल से ही आप प्रतिभावान थे। मात्र ढाई वर्ष की आयु में ही आपके पिताश्री का देहावसान हो गया। परिवार में आजीविका की समस्या हो गई, आपका शैशव काल खींवसर के बच्छावत परिवार में व्यतीत हुआ। ननिहाल वालों ने नथमल की हर तरह से सुरक्षा की। लंबे समय तक गाय के दूध से उदरपूर्ति का क्रम रहा ताकि बालक का दिमाग तेजस्वी बना रहे। बड़े होने पर पारिवारिक जन टमकोर ले आए वहाँ प्रवासित मुनि छबीलजी, मुनि मूलचंद जी का ध्यान बालक नथमल की तरफ केंद्रित हो गया और प्रारंभिक ज्ञान करवाया। जिससे बालक के मन में वैराग्य भाव का जागरण हुआ। मुनिद्वय की प्रेरणा से तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य के दर्शन गंगाशहर में किए। प्रथम दर्शन और प्रवचन से नथमल का वैराग्य और अधिक पुष्ट हुआ और प्रतिक्रमण का आदेश भी मिल गया। पूज्य कालूगणी गंगाशहर चातुर्मास के पश्चात सरदारशहर मर्यादा महोत्सव के लिए पधार रहे थे। उस समय नथमल ने माता बालूजी के साथ भादासर में गुरुदेव के दर्शन किए और दीक्षा की अर्ज की। पूज्य गुरुदेव ने नथमल को दीक्षा की स्वीकृति प्रदान कर दी परंतु माता को अनुमति नहीं मिली। नथमल ने आग्रह किया कि माता को भी दीक्षा की स्वीकृति प्रदान कराएँ, कालूगणी ने फरमाया कि अभी केवल तुम्हें ही अनुमति दी हैं, परंतु नथमल के विनम्र निवेदन पर गौर करते हुए माँ-बेटे दोनों को अनुमति मिल गई।
सरदारशहर में भंसाली जी के बाग में आपकी दीक्षा संपन्न हुई। दीक्षा के पश्चात पूज्यप्रवर ने मुनि तुलसी के पास वंदना करवा दी। मुनि तुलसी के कुशल अनुशासन में आपका अध्ययन अध्यापन चला। मुनि तुलसी जब आचार्य बने आपको उनकी सेवा का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। कहा भी जाता हैµ‘जैसा संग वैसा रंग’ यह युक्ति पूर्ण सत्य चरितार्थ हुई और आप आचार्यश्री तुलसी के सक्षम पट्टधर बने। आपकी विनम्रता, विद्वता, सरलता, समर्पण, गुरुभक्ति, आचारनिष्ठा, अनुत्तर थी। इन्हीं गुणों को देखकर गुरुदेव तुलसी ने अपने रहते ही अपना आचार्य पद विसर्जन कर आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। तेरापंथ धर्मसंघ के लिए यह प्रथम घटना थी। आचार्य महाप्रज्ञजी ने प्रेक्षाध्यान और जीवन-विज्ञान के द्वारा व्यक्तित्व निर्माण का महनीय कार्य कर जैन-अजैन सबको शांतिमय जीवन जीने की कला सिखाई। अनेक आगमों का संपादन कर अनेक पुस्तकें लिखकर संसार की जटिल समस्याओं का समाधान प्रदान किया, जिसे युग नहीं शताब्दियाँ याद करेंगी।
आचार्यश्री महाप्रज्ञजी जीवन के दशवें दशक तक पूर्ण सक्रिय रहे। यात्रा, प्रवचन, पठन-पाठन, लेखन, संघ संचालन में अपनी शक्ति का पूरा नियोजन करते रहे। तेरापंथ धर्मसंघ में इतनी लंबी अवस्था प्राप्त करने वाले और अपने गुरु के रहते हुए आचार्य पद पर सुशोभित होने वाले प्रथम थे। उनकी विनम्रता, पवित्रता, सरलता, सहजता, विद्वता, कर्तव्यपरायणता, प्रशंसनीय और स्तुत्य ही नहीं सभी के लिए अनुकरणीय है। उनके 103वें जन्मदिवस पर यह मंगलकामना करता हूँ कि उनके द्वारा प्रदत्त शिक्षाओं को आत्मसात करके स्व पर कल्याणकारी बनूँ।