साध्वी मोहन कुमारीजी (श्रीडूंगरगढ़) का देवलोकगमन
सिवानी (हरियाणा)
शासनश्री साध्वी मोहन कुमारीजी का जन्म दिनाजपुर (वर्तमान में बांग्लादेश) में वि0सं0 1990 पौष शुक्ला चतुर्थी (20 दिसंबर, 1933) को श्रीडूंगरगढ़ (राजस्थान) के मालू परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम मोतीलालजी मालू और माता का नाम मुलतानीदेवी मालू था। उन्होंने तेरह वर्षों की लघुवय में तेरापंथ के नवम अधिशास्ता आचार्यश्री तुलसी के मुख-कमल से जैन भगवती दीक्षा स्वीकार की। उनकी दीक्षा विक्रम संवत् 2002 माघ शुक्ला पंचम (27 जनवरी, 1947) को चुरू में हुई। मालू परिवार से चार बहनें दीक्षित हुई। साध्वी मोहनांजी की दीक्षा उनकी बड़ी बहन साध्वी चांदांजी के साथ हुई। साध्वी प्रेमलताजी (छोटी बहन) और साध्वी किरणप्रभाजी (चचेरी बहन) की दीक्षा उनके बाद में हुई। दीक्षा के बाद साध्वी मोहन कुमारीजी ने साध्वी हरकंवरजी (फतेहपुर) के सान्निध्य में अपने आध्यात्मिक संस्कारों को पुष्ट किया और शैक्षणिक विकास की दिशा में अग्रसर हुई। वि0सं0 2028 गंगाशहर मर्यादा महोत्सव के अवसर पर गुरुदेव श्री तुलसी ने अग्रणी के रूप में नियुक्त किया। वि0सं0 2073 सिलीगुड़ी मर्यादा महोत्सव पर महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने उन्हें शासनश्री अलंकरण से अलंकृत किया। राज0, म0प्र0, पंजाब, हरियाणा आदि उनके विहार क्षेत्र रहे। वि0सं0 2053 में श्रीडूंगरगढ़ सेवाकेंद्र में चाकरी के दौरान उन्होंने एक साथ पाँच मुमुक्षु बहनों को प्रेक्षा-प्रणेता आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी के पावन चरणों में समर्पित किया। साध्वी पंचनिष्ठाओं में निष्णात थी। उन्होंने आगमों का गहराई से पारायण करने के बाद युग-सापेक्ष विषयों का भी अध्ययन किया। वे हिंदी, राजस्थानी, संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी भाषाओं का ज्ञान रखती थीं। उनकी साहित्यिक प्रतिभा बेजोड़ थी। हस्तलिपि सुंदर थी। काव्य-कल्पना अद्भुत थी। छंद-रचना में प्रवाह था। उनकी तीन कृतियाµ(1) व्यवसाय प्रबंधन के सूत्र और आचार्य भिक्षु की मर्यादाएँ, (2) अंक सम्राट आचार्य तुलसी, (3) अंक विज्ञान और आचार्य महाप्रज्ञ। उनकी नवीकरण की क्षमता के प्रकट करती हैं। उनकी काव्यकृतियाँµममता-बंधन, अरहंते सरणं पवज्जामि, ध्रुवयोगी महावीर और प्राणकोश (कविता-संग्रह), उनकी सृजनशीलता की निशानी है। पिछले बारह वर्षों के क्रमशः आहार-परिहार क्रम को देखकर ऐसा लगता था कि वे गुप्त रूप में संलेखना की दिशा में आगे बढ़ रही हैं। 23 मई, 2022 को सिवानी में रात्रि 11ः15 बजे देवलोकगमन हो गया। अंतिम संस्कार 24 मई सिवानी में किया गया।