समता की साधना विप्रसन्‍नता का महत्त्वपूर्ण उपाय है : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

समता की साधना विप्रसन्‍नता का महत्त्वपूर्ण उपाय है : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 20 जुलाई, 2021
जैन धर्म के व्याख्याता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देषना प्रदान करते हुए फरमाया कि अपने आपको विप्रसन्‍न करें, विशेषरूपेण प्रसन्‍न करें। सामान्य प्रसन्‍न होना भी एक उपलब्धि है। विशेष प्रसन्‍नता वह है, जो बाह्य निमित्तों से खंडित न हो। सामान्य प्रसन्‍नता परिस्थिति सापेक्ष होती है।
जो परिस्थिति से खंडित न हो वह विशेष प्रसन्‍नता है। जिस पर परिस्थिति का प्रहार काम कर सकता हो, वह प्रसन्‍नता सामान्य प्रसन्‍नता हो जाती है। विशेष प्रसन्‍नता का उपाय है, समता की निकटता से प्रेक्षा करो, आत्मसात करो।
एक चिंतन का आलम दिया गया कि साधु कैसे मन को समझाकर रखे। जो मिला वो ठीक है, न मिला तो भी ठीक है। नहीं मिला तो तपस्या हो जाएगी। जैसे भगवान ॠषभ के आहार न मिलने से वर्षीतप हो गया था। तपस्या की वृद्धि आत्मा के लिए लाभदायी है। मिल गया तो शरीर को पोषण।
आदमी के हाथ में पुरुषार्थ तो फिर भी हो सकता है। पर फल की प्राप्ति जरूरी नहीं। नहीं मिलने पर दु:खी न बने। विसमता में न जाएँ। परिस्थिति व निमित्त जैसे भी हो, उपाय करने का प्रयास कर लो, मन पर असर न हो। शांति में रहो। उद्विग्न न बनो। तो विशेष प्रसन्‍नता की स्थिति बन सकती है।
सुख-दु:ख है, शरीर में असाता है, तो इलाज करा लो मन से उद्विग्न न बनो। प्राकृतिक उपाय जितना हो बढ़िया है। सुख-दु:ख में समता। जीवन-मरण में भी समता। साधना अच्छी रखो। निंदा-प्रशंसा में भी समता। गुरुदेव तुलसी के कितनी प्रतिकूलता की स्थितियाँ आई होंगी। विरोधों में भी अवरोधों की स्थिति न बने। हम अपने ढंग से काम करें। अच्छे कार्य द्वारा निंदा का जवाब दो। सबका अपना-अपना चिंतन हो सकता है।
वाणी से जवाब नहीं, अच्छा कार्य करो, उनसे जवाब दो तो प्रतिकूल जो बन रहे थे, हमारे प्रशंसक भी बन सकते हैं। मान-अपमान हो जाए तो भी समता रखो। ऐसी समता है, तो विप्रसन्‍नता, विशेष प्रसन्‍नता की स्थिति रह सकती है। विरोध करने वालों का अपना सिद्धांत हो सकता है। हम अपने ढंग से चले। विरोध होने पर निराश न हो जाएँ न उनके प्रति द्वेष रखें, शांति रखें।
काम की बात है, तो ससम्मान ले लो। हम अपना परिष्कार करें। बेकार की चीज छोड़ दो। समता की साधना रखो, कहना आसान है, पर यूँ मुश्किल है। मौका आने पर समता रह सके तो बड़ी बात है। मन को प्रशिक्षित कर दिया जाए, चिंतन को अच्छा रखा जाए तो अनेक स्थितियों में आदमी शांति में रह सकता है।
किसी ने कोई बातें कह दी, वो बातें सही हैं तो तुम अपना ध्यान दो, अपना परिष्कार करो। वापस गुस्सा मत करो। वो तो उपकारी है, तुम्हारा, मानो तुम्हें उसने एक राय दे दी है। कोई झूठ बोलता है, तो भी उस पर दया करो, पर गुस्सा मत करो। यह समझाकर मन को रखें तो समता का भाव रख सकते हैं।
आचार्य भिक्षु के सामने तो कितनी स्थितियाँ आई होंगी, यों निराश होते तो संघ कैसे आगे बढ़ता। उन्होंने तो कंटकाकीर्ण स्थिति में अपने पथ का निर्माण किया होगा। हम अपने पुरखों से, उनके जीवन से शिक्षा-प्रेरणा लेने का प्रयास कर सकते हैं।
संत वह होता है जो शांत होता है। कुछ भी कर दो, चेहरे पर प्रसन्‍नता है। नासमझ न रहो, बात को समझ लो पर, शांति रखो। जीवन में कुछ आगे बढ़ना है, तो सहन करने की शक्‍ति का विकास जरूरी है। प्रकृति अच्छी है, तो सुख मिल सकेगा। कौआ-कोयल के प्रसंग से समझाया।
सगे साधु-साध्वी आपस में सेवा करावें तो ज्ञान की बात करें। आगम की चर्चा करें। समता ऐसा साधन है, जो आत्मा को विशेष प्रसन्‍न बनाने का उपाय है।
मुनि आनंद कुमार जी (मुनि जतनलाल जी स्वामी के सहवर्ती), मुनि निकुंजकुमार जी (मुनि किशनलाल जी के सहवर्ती), मुनि मार्दवकुमार जी, मुनि दर्शन कुमार जी ने अपनी अनुभूति बड़े ही सुंंदर शब्दों में श्रीचरणों में अभिव्यक्‍त की।
पूज्यप्रवर ने फरमाया कि मुनि आनंद कुमार जी, मुनि जतनमल जी के साथ वर्षों से रहे हैं। वृद्ध संत की जो सेवा करता है, उनको चित्त समाधि, उनकी शारीरिक सेवा, बहुत अच्छा काम है। एक जीवन की उपलब्धि होती है। इस बार देखें कितने हमारे अग्रणी-स्थिवर मुनि पधार गए। वृद्ध संत की सेवा कर दी मानो एक पूंजी कमा ली। बड़ा पुण्य और धर्म का काम है। सेवा कराने वाले को शांति मिलती है, सेवा करने वाले को भी शांति मिलती है। वैसे मुनि पृथ्वीराज जी की मुनि पारस जी, मुनि सुखलाल जी की मुनि मोहजीत जी, मंत्री मुनिश्री की उदित मुनि स्वामी के सिंघाड़ों ने सेवा मन से की है। उनकी सेवा संघ की सेवा है। हमारे लिए सीखने की बात है।
सेवा करना हमारे जीवन का गहना है। साध्वियाँ भी अनेक वृद्ध आई हैं। उनको चित्त समाधि पहुँचाएँ। सेवा करना हमारा धर्म है। जो सक्षम है, वो अक्षम की सेवा करें। सेवा दो प्रकार की हो जाती है। एक तो संघ को जहाँ अपेक्षा वहाँ सेवा दे देना। चाहे जहाँ भेज दें, सेवा कर लो। यह हमारे जीवन के लिए, आत्मा के लिए और संघ के लिए अच्छी बात है।
किशोर मंडल से ॠषि दुगड़ ने पूज्यप्रवर के स्वागत में अपने भाव व्यक्‍त किए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।