ज्ञान प्राप्ति का सक्षम माध्यम है ‘श्रुत’: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 17 जुलाई, 2022
जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती के तीसरे सूत्र में कहा गया है कि श्रुत को नमस्कार। प्रथम तीन सूत्रों में मंगल का प्रयोग किया गया है। नमस्कार किया गया है। जैन दर्शन में ज्ञान के पाँच प्रकार बताए गए हैं। मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव और केवल ज्ञान। श्रुत ज्ञान के दो प्रकार होते हैं। द्रव्य श्रुत और भाव श्रुत। हम शब्द का उच्चारण करते हैं या लिखा हुआ होता है। ये दोनों द्रव्य श्रुत हैं, जड़ श्रुत है। उस जड़ श्रुत से हमें जो अर्थ बोध होता है, वह बोध भाव श्रुत होता है। शब्द भले जड़ हो, ज्ञान के बड़े सक्षम माध्यम बनते हैं। मैं प्रवचन कर रहा हूँ, यह शब्दों की दुनिया है। मेरे शब्द को श्रोता सुन रहे हैं। मैं स्वयं भी अपने शब्दों को सुन रहा हूँ। सुनने से हो सकता है कईयों को ज्ञान मिल जाए। शब्द माध्यम बनते हैं ज्ञान के। वृत्तिकार ने यहाँ श्रुत का अर्थ द्वादशांगी या अर्हत् प्रवचन किया है। प्रश्न होता है कि देवता या अर्हत् को तो नमस्कार किया जा सकता है, पर यहाँ श्रुत को नमस्कार कैसे किया गया है।
यहाँ बताया गया है कि श्रुत इष्ट देवता ही है। जिन वाणी और जिन देव में क्या अंतर है? जो श्रुत की भक्ति से आराधना-उपासना करते हैं, वो जिनेश्वर भगवान की आराधना करते हैं। अर्हत् होते हैं, वे सिद्धों को नमस्कार करते हैं। ज्ञान का महत्त्व होता है। सम्यक् ज्ञान नहीं है, तो सम्यक् चारित्र भी नहीं हो सकता। जयाचार्य ने भगवती सूत्र पर बड़ा ग्रंथ लिखा है, जिसका नाम है, भगवती की जोड़। राजस्थानी भाषा में भगवती की व्याख्या-टिप्पणी लिखी है। उन्होंने वृत्तिकार की भी समीक्षा की है।
भगवती जोड़ में जयाचार्य ने श्रुत की अपनी व्याख्या बताई है। जो चारित्रवान ज्ञान युक्त साधु है, उसको नमस्कार है। श्रुत का बड़ा महत्त्व है। प्राचीन काल में तो सुनते-सुनते आगे से आगे ज्ञान की परंपरा चलती रही होगी। आज भी हमने अनेक बातें अपने गुरुओं से सुनी है। सुनी हुई बात दूसरों को बता दें तो सुना हुआ श्रुत होता है। ज्ञान अपने आपमें एक बड़ी पवित्र चीज होती है। निर्जरा के बारह भेदों में एक भेद हैµस्वाध्याय। श्रुत का संबंध स्वाध्याय के साथ होता है। नीति शुद्ध रहे। शुद्ध नीति से कोई कार्य करते हैं तो उसका दोष भी न लगे। हमारे गुरुओं ने जो बताया है उस रास्ते पर हम चलते हैं।
आचार्यप्रवर ने कालू यशोविलास को व्याख्यायित करते हुए फरमाया कि बुद्धमल जी के पाँच बेटे हुए थे। मूलचंद दूसरे नंबर के पुत्र थे। मुनि कालू का वि0सं0 1933 फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को जन्म हुआ था। कन्या लग्न बृहस्पतिवार को जन्म हुआ था। माता व परिवार वाले बहुत हर्षित होते हैं, कारण छोगांजी के सत्तरह वर्ष बाद संतान उत्पन्न हुई थी। मुनि कालू के जन्म के तीन दिन बाद एक यक्ष द्वारा कठिनाई की स्थिति हो जाती है। पर छोगांजी दृढ़ साहसी थी। छोगांजी ने बच्चे को गोद में लेकर यक्ष को दूर कर दिया। बुद्धसिंह ने अपने पोते के भविष्य के बारे में ज्योतिषी से पूछा। ज्योतिषी ने सारा उनका भविष्य फल बता दिया। बुद्धसिंह ने दूसरे ज्योतिषी से भी पूछा। उसने भी वही अच्छी बातें बताई। भृगु संहिता से भी उनके भविष्य की जानकारी प्राप्त की गई।
साध्वीप्रमुखाश्री जी ने कहा कि यदि तुम विजय प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी इंद्रियों का संयम करना होगा। यदि तुम विपत्तियों को प्राप्त करना चाहते हो तो तुम अपनी इंद्रियों का असंयम करो। इंद्रियों पर संयम करने वाला व्यक्ति अपनी आत्मा के भीतर रहता है। भगवान कभी बाहर की दुनिया में उपलब्ध नहीं होते। साध्वी सुषमा कुमारी जी ने बहनों के नवरंगी तप की प्रेरणा दी। सिद्धकरण सुराणा ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। चुरू जिला प्रमुख वंदना ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की। व्यवस्था समिति ने उनका साहित्य से सम्मान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।