पथ दर्शक और जिज्ञासाओं के समाधायक होते हैं तीर्थंकर: आचार्यश्री महाश्रमण
चातुर्मास काल में आचार्यप्रवर करेंगे भगवती सूत्र आगम और कालूयशोविलास का व्याख्यान
छापर, 15 जुलाई, 2022
जिनवाणी के माध्यम से जन-जन का कल्याण करने वाले तीर्थंकर प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमण जी ने 32 आगमों में सबसे बड़े आगम ‘भगवती सूत्र’ के माध्यम से पावन प्रेरणा प्रदान करने का क्रम प्रारंभ किया। जिनवाणी के व्याख्याता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने भगवती सूत्र आगम की व्याख्या करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र 32 आगमों में सबसे बड़ा और विशालकाय आगम है। इसका प्रारंभ नमस्कार महामंत्र से शुरू होता है। यह इसका पहला सूत्र है। इस नमस्कार की जो रचना है, पाँचवाँ पद दिया गया है-णमो सव्व साहूणं। इसमें लोए शब्द नहीं दिया गया है। भगवती में णमो सव्व साहूणं की व्याख्या की गई है। ऐसो पंचणमोक्कारो नहीं दिया गया है। नमस्कार के अनेक रूप हो सकते हैं। कहीं पाँच पद नहीं मिलते, दो ही पद मिलते हैं। णमो अरहंताणं, णमो सव्व सिद्धाणं। वर्तमान में हमारे यहाँ पाँच पदों वाला नमस्कार महामंत्र प्रचलित है। उसमें भी णमो लोए सव्व साहूणं पाठ हमारे यहाँ प्रसिद्ध है।
प्रारंभ में दिए गए नमस्कार मंत्र को मंगल माना गया है। कार्य निर्विघ्नता संपन्न हो जाएँ, उसके लिए मंगल का उपयोग किया जाता है। आदि मंगल, मध्य मंगल ओर अंतमंगल की बात भी हो सकती है। आगम तो वैसे अपने आपमें ही मंगल है। परम विशिष्ट आत्माएँ हैं, उनको नमस्कार करें। हमारी दुनिया में मनुष्यों में तो धर्म के क्षेत्र में सबसे बड़े अर्हत् होते हैं। इसलिए सिद्धों से पहले अर्हतों को नमस्कार किया गया है, क्योंकि ज्ञान के प्रदाता वे हैं। हमारे काम तो अर्हत आते हैं, सिद्ध क्या काम आते हैं? वे तो विराजमान हो गए। वे न तो हमसे बात करते, न हमें सिखाते, न पथदर्शन देते, न हम उनके चरणों में माथा रखकर वंदन कर सकते। उनको तो दूर से नमस्कार भले कर लें और स्वार्थ हमारा उनसे सिद्ध नहीं होता है। अर्हतों से हमारा स्वार्थ सिद्ध हो सकता है।
अर्हत् तीर्थंकर है, प्रवचनकार है, पथ-प्रदर्शक है, जिज्ञासा के समाधायक भी हैं। णमो अरहंताणं में भी पाठांतर की बात है। णमो अरिहंताणं, णमो अरुहंताणं भी पाठ चलता है। हमारे यहाँ चालु व्यवस्था में णमो अरहंताणं ज्यादा काम लिया जाता है। अर्हत् जो चार घाती कर्मों को क्षीण कर चुके हैं। केवलज्ञान, केवलदर्शन से संपन्न है। तीर्थंकर तीर्थ की स्थापना करने वाले होते हैं। एक समय आता है और अर्हत् भी सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाते हैं। शेष चार अघाती कर्मों का भी वो क्षय करके मोक्ष अवस्था को भी प्राप्त हो जाते हैं। अर्हत् दुनिया में हमेशा रहते हैं। कम से कम बीस तीर्थंकर और अधिकतम एक सौ सत्तर तीर्थंकर एक साथ हमेशा दुनिया में विद्यमान रहते हैं। तो अर्हतों को यहाँ सबसे पहले नमस्कार किया गया है।
दूसरे नंबर पर णमो सिद्धाणं, आठों कर्मों से मुक्त सिद्ध आत्माओं को नमस्कार किया गया है। वे मोक्ष में विराजमान शुद्ध आत्माएँ हैं। शरीर-वाणी-मन नहीं है। अशरीर अवाक् और अमन होते हैं। केवल चैतन्यमय है। एक बार जो आत्माएँ सिद्ध बन गई, वापस संसार में जन्म-मरण लेती नहीं। हमेशा के लिए वे सिद्ध स्वरूप में ही विराजमान रहेगी। भगवान महावीर पहले अर्हत थे। कितना उन्होंने विचरण किया, धर्म का उपदेश दिया, बाद में कार्तिक कृष्णा अमावस्या को वे मोक्ष को प्राप्त हो गए, सिद्ध बन गए। जहाँ वो आत्मा विराजमान हो गई, दो ईंच भी आगे-पीछे नहीं होगी। 24 ही तीर्थंकर ऋषभ आदि व और भी कितनी आत्माएँ मोक्ष में हैं, वे वापस जन्म नहीं लेंगी।
जैन दर्शन में ऐसा नहीं माना गया है कि कोई परमात्मा-भगवान वापस जन्म लेती है। परंतु देवलोक में जो आत्माएँ हैं, वो नीचे आ सकती हैं। मनुष्य रूप में अवतार ले सकते हैं। महापुरुष के रूप में रह सकते हैं। यदा-कदा दुनिया में महापुरुष पैदा होकर धर्म का विकास करें, अधर्म को मिटाने का प्रयास करें। सिद्ध बनने वाले हैं, वो कोई साधु के वेष में या गृहस्थ वेष में है, उसकी आत्मा सिद्धावस्था मोक्ष को प्राप्त कर सकती है। पुरुष, स्त्री या नपुंसक भी जा सकता है। तीसरे नंबर में णमो आयरियाणं- आचार्यों को नमस्कार किया गया है। आचार्य मध्यस्थ है, उनसे ऊपर दो हैं, उनसे नीचे दो हैं। आचार्य तीर्थंकर के प्रतिनिधि कहे गए हैं। कोई निर्णय करना हो उसके आचार्य अधिकृत होते हैं। हमारे धर्मसंघ में आचार्य का बड़ा महत्त्व है। आचार्य स्वयं आचार पालने वाले, दूसरों को आचार पालन में सहयोग देने वाले होते हैं।
णमो उवज्झायाणं-उपाध्यायों को नमस्कार किया गया है। उपाध्याय ज्ञान के भंडार होते हैं। उपाध्याय एक ही व्यक्ति आचार्य भी हो सकता है तो अलग-अलग व्यक्ति भी हो सकता है। हमारे धर्मसंघ में उपाध्याय पद अलग से किसी के पास नहीं है। आचार्य ही हमारे उपाध्याय हैं। जब आचार्य पठन-पाठन करते हैं, तो उनका उपाध्यायात्व उजागर हो जाता है। आचार्य भिक्षु ने एक बार फरमा दिया था कि सातों पद में ही संभालता हूँ, यही परंपरा चल रही हैं णमो सव्वसाहूणं-सब साधुओं को नमस्कार है। शुद्ध साधु जो भी जहाँ है, उन सब साधुओं को नमस्कार है। इसका पाठांतर है-णमो लोए सव्व साहूणं। लोक के समस्त साधुओं को नमस्कार किया गया है। किसी समय पूरे लोक में साधु हो सकते हैं केवली समुद्घात के समय आत्मा के प्रदेश पूरे लोक में फैल जाते हैं, इस उपेक्षा से साधु समस्त लोक में हो सकते हैं। यह मंगल के रूप में पाँच पदों का सूत्र भगवती सूत्र में दिया गया है।
आचार्यप्रवर ने आचार्य कालूगणी की जन्मभूमि पर आचार्य तुलसी द्वारा रचित कालूयशोविलास के रूप में उपरला बखान प्रारंभ किया। आचार्यप्रवर ने पद्यों का संगान कर स्थानीय भाषा में फरमाते हुए कहा कि कालूगणी हमारे कल्पतरु थे। वे कलाओं के निधान थे। वे कोमल करुणाशील व हमारे धर्मसंघ की शान थे। कालूगणी छोगांजी-मूलचंदजी के पुत्र थे। वे मघवागणी द्वारा दीक्षित उनके शिष्य थे। डालगणी के पट्टधर थे। उनके जीवन की अनेक बातें कालू यशोविलास में गुंफित हैं। इसके कुल छः विभाग हैं। इस ग्रंथ का जितना स्वाद लिया जाए, अच्छा है। जानकारी मिल सकती है। उनके जन्म के समय के छापर का चित्रण सुंदर ढंग से समझाया। साध्वीवर्या जी ने कहा कि मणी, मंत्र और औषधि का अचिन्त्य प्रभाव होता है। हर पदार्थ से रश्मियाँ निकलती हैं। रत्नों से निकलने वाली रश्मियाँ शुभ भी हो सकती हैं और अशुभ भी हो सकती हैं। उनका अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। औषधि का प्रभाव भी अकल्पनीय होती है। जड़ी-बूटियों का अलग प्रभाव होता है। मंत्र का भी अपना प्रभाव होता है। जिनसे सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। व्यवस्था समिति द्वारा चतुर्मास की फड़द एवं चातुर्मास प्रवास पुस्तिका पूज्यप्रवर को समर्पित की गई। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया। मुनि दिनेश कुमार जी ने कार्यक्रम का संचालन करते हुए समझाया कि प्रवचन श्रवण से त्याग-विरक्ति के भाव आ सकते हैं।