जीवन में प्राप्त सुख-दुख का कारण होते हैं कर्म: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 20 जुलाई, 2022
आत्म रमण के साधक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने आगम वाणी का विवेचन करते हुए फरमाया कि भगवती आगम के 56वें सूत्र में कहा गया है कि दार्शनिक और धार्मिक जगत में यह बात आती है कि आदमी को सुख-दुःख किस कारण मिलते हैं? संसार में तीन अवधारणाएँ है, चलती हैं-ईश्वरवाद, अज्ञातवाद और कर्मवाद। जैन दर्शन कर्मवाद की अवधारणा को मानने वाला धर्म है। कर्मवाद के सिद्धांत के विषय में भगवती सूत्र में एक प्रश्न किया गया है कि जीव स्वयंकृत कर्म को भोगते हैं, यह बात सही है क्या? इसके उत्तर में कहा गया-कुछ भोग लेते हैं, कुछ नहीं भी भोगते हैं। यह कैसे? इसका उत्तर दिया गया कि कर्म जो उदय में आ गया, उसको भोगते हैं। उदय में नहीं आया उसको नहीं भोगते।
जैन आगम वाङ्मय और अन्य ग्रंथों में भी कर्मवाद पर प्रकाश डाला गया है। कि एक जन्म में जितने कर्म किए हैं, वे सारे एक जन्म में भोग लेगा, यह बात सर्वत्र लागु नहीं है। जो-जो उदय में आएँगे उनको भोगेगा। हो सकता है कि कई जन्मों के संचित कर्म हैं, वे अभी उदय में नहीं आए हैं। दूसरी बात यह भी है कि कर्म किया तो है, पर उसकी तपस्या के द्वारा निर्जरा कर दी तो फिर भोगना नहीं पड़ेगा। परंतु वह स्वयं का किया हुआ ही भोगेगा। कर्मवाद का सिद्धांत है-जैसी करणी, वैसी भरणी। जैन दर्शन में आठ कर्म बताए गए हैं, वे दो भागों में विभक्त है-घाति कर्म और अघाति कर्म। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय ये चार घाति कर्म हैं। शेष चार कर्म अघाति हैं। घाति कर्म ही ज्यादा नुकसान देते हैं। ये आत्मगुणों का घात करने वाले हैं। अघाति कर्म ज्यादा नुकसानदेह नहीं हैं। ये पुण्य-पाप से अनुकूलता-प्रतिकूलता भले पैदा कर दें पर और ज्यादा आत्मा का नुकसान करने वाले नहीं हैं।
चार घाति कर्म है, उनमें भी ज्यादा नुकसानदेह मोहनीय कर्म है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय ये मोहनीय कर्म न हो तो क्या ये बंधेंगे, बंधेंगे भी नहीं। हम प्राणियों के जीवन को, कर्मवाद में विश्लेषित कर सकते हैं। कईयों का ज्ञानात्मक विकास नहीं होता है, इसका कारण ज्ञानावरणीय कर्म का उदय ज्यादा है। उम्र के साथ विकास नहीं होता है।
कई तीक्ष्ण-कुशाग्र बुद्धि वाले होते हैं, इसका मतलब है, उनके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अच्छा है, तभी उनका ज्ञानात्मक-बौद्धिक विकास हो रहा है। क्षमता अच्छी है। कईयों का स्वास्थ्य अच्छा होता है, उनके सात वेदनीय का योग अच्छा है। कोई-कोई आदमी आए दिन बीमार रहता है, इसका मतलब उसके असातवेदनीय का योग है, इसलिए वह कष्ट पा रहा है। एक आदमी शांत स्वभाव का है, मिलनसार है, मानना चाहिए मोहनीय कर्म हल्का है। कोई आदमी गुस्से में आ जाता है, लालची, धोखेबाज है, उसके मोहनीय कर्म भारी हैं, विकृत है। एक आदमी लंबे आयुष्य वाला है, उसके आयुष्य कर्म अच्छा है। किसी का जीवन कष्टमय है, वह जल्दी मर भी जाता है, तो आयुष्य कर्म की स्थिति ठीक नहीं है।
एक आदमी की समाज में बड़ी प्रतिष्ठा है, सम्मान मिलता है, उसके पुण्यवत्ता अच्छी है। शरीर सुंदर है, तो शुभ नाम कर्म का उदय है। नाम-गौत्र कर्म अनुकूल है, उनके बाह्य अनुकूलताएँ हैं। किसी को सम्मान नहीं मिलता है, शरीर भी सुंदर नहीं है। जाति कुल भी ठीक नहीं है, उसके नाम-गौत्र कर्म की अशुभता है। पाप का उदय है। यों हम कर्मों के आधार पर आदमी के जीवन की व्याख्या कर सकते हैं। पुण्य का योग है, पर बीच में कष्ट भी आ जाए। पुण्य का योग ठीक है, तो आदमी उच्च पदों पर भी आ सकता है। ज्योतिष और कर्मवाद की भी समीक्षा की जा सकती है। कर्म ग्रंथों में कर्म की बात मिलती है। पता नहीं कौन सा कर्म कब उदय में आ जाए। इस जन्म में भले पाप कर्म ज्यादा नहीं, पर पूर्व जन्मों के पाप-कर्म उदय में आ सकते हैं। पुण्य भी उदय में आ सकते हैं। आकाश में पत्थर फैंका तो वो तो नीचे गिरेगा ही। नहीं फैंकेंगे तो नहीं गिरेगा। जो कर्म किए हुए हैं, वो तो भोगने पड़ेंगे ही।
पुण्य पाप दोनों को भोगना ही पड़ता है। पुण्य का उदय हो तो आदमी छोटी उम्र में सम्मान प्राप्त कर सकता है, जैसे गुरुदेव तुलसी 22 वर्ष की उम्र में ही आचार्य बन गए थे। पुण्य का योग हो तो भी आदमी प्रमाद में ज्यादा न जाए। पुण्य से धन-संपदा भी मिल जाती है, पर उसमें भी आदमी सादगी-शालीनता संयम रखे। मद में न चला जाए, पाप न करे। वरना वह पाप व दुर्गति की ओर ले जाने वाला हो सकता है। पुण्य का उदय भी कब तक रहेगा, पता नहीं है। आदमी नीचे भी चला जाता है। पाप के उदय में भी आदमी समता-शांति रखें, ये दिन भी चले जाएँगे। इस तरह यह कर्मवाद का सिद्धांत है। भगवती सूत्र में कहा गया है, जीव स्वयं कृत कर्म को भोगता है और सारे कर्म इसी जन्म में भोग लेगा, ये जरूरी नहीं है। जिन कर्मों की निर्जरा हो गई, उनको भी नहीं भोगना पड़े। जतन देवी छाजेड़ ने अठाई का प्रत्याख्यान लिया। कालूयशोविलास की व्याख्या करते हुए महामनीषी ने फरमाया कि मुनि कालु पूज्य मघवागणी की छत्रछाया में पल रहे हैं, अध्ययन कर रहे हैं। विनय-विवेक मुनि कालू में हैं। मघवागणी के साथ थली के क्षेत्रों की यात्रा कर रहे हैं। गुरु की गरिमा महान होती है, वे शिष्य पर स्नेह की वर्षा करते रहते हैं। मुनि कालू को आगम अध्ययन के बाद संस्कृत भाषा का ज्ञान मघवागणी करा रहे हैं, व्याकरण सिखा रहे हैं। छोगांजी भी मुनि कालू के प्रति जागरूक है। मुनि मगनलालजी भी मित्रवत मुनि कालू का ध्यान रखते हैं।
संयम प्रदाता आचार्यप्रवर ने नवदीक्षित साध्वी मुक्तिप्रभाजी व साध्वी प्राचीप्रभा जी को सात दिन बाद छेदोपस्थापनीय चारित्र ग्रहण कराते हुए बड़ी दीक्षा प्रदान करवाई। पाँच महाव्रतों एवं छठे रात्रि भोजन विरमण व्रत का तीन करण तीन योग से प्रत्याख्यान करवाया। दोनों साध्वियों ने समूह रूप में अपने सात दिन के अनुभव श्रीचरणों में व्यक्त किए। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि प्राणी कर्म बंध करके अनेक योनियों में संसार में भटकता रहता है।