मन में हिंसा की भावना रखना भी हिंसा के समान: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 6 अगस्त, 2022
अध्यात्म तत्त्ववेत्ता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में हिंसा के संदर्भ में जानकारी दी गई है। एक उदाहरण दिया गया है कि एक शिकारी शिकार करके अपना गुजारा चलाता है। वह मृगजीवी शिकारी जंगल में जाता है। वह शिकार के लिए कूट-पाश बाँधता है, तो उसे कितनी क्रियाएँ लगती हैं?
जैन वाङ्मय में एक क्रिया शब्द आता है। क्रियाओं के अनेक प्रकार हैं। पाँच प्रकार यहाँ प्रसंगों-पात्य है वे हैंµकायिकी, आधिकर्णिकी प्रावोशिकी, पास्तिपिनी और प्राणातिपात क्रिया। इन पाँच में से उस शिकारी के कितनी क्रियाएँ लग सकती हैं? उत्तर दिया गया कि हो सकता है, तीन ही क्रिया लगें, हो सकता है चार या पाँच क्रियाएँ भी लगें। प्रश्न है कि तीन क्यों, चार क्यों और पाँच क्यों?
इसका यह तात्पर्य है कि हिंसा है, एक तो हिंसा हो गई उसको हमने देख लिया। हिंसा करने से पूर्व प्रक्रिया भी होती है। ये पूर्व भूमिका हो गई कि मन में भाव, शरीर की चेष्टा फिर बाद में हिंसा होगी। ये क्रियाएँ पूर्व तैयारी है। शरीर की चेष्टा कायिकी, तैयारी करेगा वो आधिकार्णिकी, मन में हिंसा का भाव करेगा प्रादोशिकी क्रिया है। ये तीन क्रियाएँ पृष्ठभूमि में हो जाती है।
अब वो मारने वाला है, वो यदि बाण को छोड़े, मृग को थोड़ा सा लगा, मृग मरा नहीं तो थोड़ी तकलीफ हुई वह परितापिनी क्रिया हो जाती है। अगर वो मृग मर गया तो पाँचवीं प्राणातिपात क्रिया हो जाती है। इस तरह तीन, चार या पाँच क्रियाएँ हो सकती हैं। प्राण वध करना तो हिंसा है ही पर कायिक या अन्य क्रियाएँ भी हिंसा ही है।
हिंसा के संदर्भ में समस्या है कि शिकारी ने अस्त्र-शस्त्र तैयार किए हैं, मारा नहीं है, वह हिंसा है या नहीं। समस्या का समाधान दिया गया कि हिंसा की पूर्व तैयारी हिंसा ही है। हिंसा एक परंपराबद्ध प्रवृत्ति है। ये हिंसा की सहायक कड़ियाँ हैं, जो हिंसा के सहायक तत्त्व हैं।
यहाँ एक प्रश्न और किया गया है कि शिकारी ने मृग को मारने के लिए बाण ताण रखा है। इतने में उस शिकारी को दूसरा आदमी गोली मार देता है। जिससे शिकारी मर जाता है, साथ में शिकारी के हाथ से बाण भी छूट जाता है और मृग भी मर जाता है। शिकारी मरा उसकी हिंसा तो गोली चलाने वाले को लगी पर बाण से जो मृग मरा उसकी हिंसा किसे लगेगी?
यहाँ शास्त्रकार कहते हैं कि धनुर्धर को जिस आदमी ने मारा उसके मन में मृग को मारने का कोई संकल्प नहीं था, न उसने मृग को देखा भी होगा। दूसरा आदमी मृग का हिंसक नहीं है। वह धनुर्धर ही मृग का हिंसक है, कारण उसी का लक्ष्य था मृग को मारना। उसी के हाथ से वो बाण छूटा है। यह क्रियमान कृति हिंसा का कार्य शुरू हो गया था और हिंसा हो भी गई है। यह एक मारने की भावना उसमें थी। वे हिंसा के बारे में सूक्ष्म बात बताई गई है।
एक बात और है कि किसी ने बाण छोड़ा और वह मृग के लग भी गया पर मृग मरा नहीं है, व्यवहार में अगर वह प्राणी छः महीने के भीतर मर जाए तो उसके पाँचवीं क्रिया लग जाएगी। अगर वह मृग छः महीने के बाद मरता है, तो वह हिंसा का पाप बाण फेंकने वाले को नहीं लगेगा।
साधु के पास लब्धि है, उसने प्रयोग किया कि सेना को मारना उसने किसी आदमी पर प्रहार किया और वह आदमी छः महीने में मर जाए तो साधु को नई दीक्षा आए और अगर वह छः महीने बाद मरे तो साधु का दोष नहीं है, साधु को नई दीक्षा नहीं आए। ये ऐसी सूक्ष्म बात है। हमारी सामान्य सी परंपरा रही है कि कोई साधु संघ में अलग हो। पर साधु वेष में है, साधुपन पाल रहा है, अगर वो छः महीने के भीतर ही संघ में आना चाहे तो नई दीक्षा दिए बिना ही लिया जा सकता है। छः महीने बाद संघ में आए तो नई दीक्षा लेनी होती है। उसमें अपवाद-परिवर्तिन हो सकता है। ये सारी व्यवहार की बातें हैं।
भगवती सूत्र में हिंसा के बारे में गहरा ज्ञान दिया गया है कि आदमी का इरादा क्या है? उस इरादे के संदर्भ में ही हिंसा को देखना होता है। कोर्ट में भी यही दंड संहिता है कि मारने वाले का इरादा क्या था। ये कुछ बौद्धिकतापूर्ण, कुछ अध्यात्म और हिंसा की एक गहन बातें हैं। सारांश यह है कि हमारे मन में हिंसा का इरादा हीन बने। न मारना अलग बात है, पर संकल्प भी न हो। यह अहिंसा की अच्छी कोटि की साधना हो सकती है।
परम पावन ने कालू यशोविलास का विवेचन करते हुए फरमाया कि बाल दीक्षा के बारे में जोधपुर राज्य में बात आई है कि नाबालिग दीक्षा न हो। लोगों की राय लेने के लिए तीन महीने का समय दिया गया है। तेरापंथ समाज में चिंतन किया गया कि ये बात तो ठीक नहीं है। बचपन में ही अध्ययन अच्छा हो सकता है। अपने तो आगम में तो बात आई हुई है कि 8 वर्ष का दीक्षा ले सकता है। समाज के प्रमुख श्रावक मिलकर जोधपुर जाकर मुख्य न्यायाधीश से बात करतेे हैं। तेरापंथ की दीक्षा प्रणाली सुनकर मुख्य न्यायाधीश व्यथित हो जाते हैं। वे आश्वासन भी देते हैं। एक बार वह आदेश स्थगित कर दिया जाता है। पूज्य कालूगणी लाडनूं चातुर्मास पूर्ण कर छापर पधार जाते हैं। यहाँ संस्कृत का अभ्यास किया जा रहा है।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
साध्वीवर्या जी ने कहा कि प्राणी दुर्गति में न जाए इसके लिए पाप कर्म से विरत होना पड़ेगा। पाप से बचाने वाला मार्ग हैµसंयम। संयम दो प्रकार का होता हैµसंयमासंयमी व संयमी। नमस्कार महामंत्र में णमो लोए सव्व साहूणं पाँचवाँ पद है। शुद्ध साधु हो पाँचवें पद का अधिकारी हो सकता है। जो पाँच महाव्रतों का निष्ठापूर्ण पालन करता है, वह शुद्ध साधु होता है।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि द्वेष पहले समाप्त होता है, बाद में राग समाप्त होता है। राग समाप्त होते ही आदमी वीतराग बन जाता है।