साँसों का इकतारा
(80)
सृष्टि का इतिहास यह रहता अधूरा अगर इसमें
जीवनी के पृष्ठ अनुपम ये तुम्हारे जुड़ न पाते
शिशिर में मधुमास का कब रंग यह खिलता सुहाना
जो गले में माधुरी भरकर समय पर तुम न गाते।।
बढ़ रही थी आदमी से आदमी के बीच दूरी
भेद की दीवार लंबी और ऊँची हो गई थी
टूटता ही जा रहा था मन मनुज का सब तरह से
चेतना पुरुषार्थ की जाकर कहीं पर सो गई थी
जहर की पुड़िया मिलाकर पी रहा था मधुर पय में
मरण था निश्चित अगर पीयूष लेकर तुम न आते।।
तैरती थी पीर नयनों में अकारण आदमी के
हुआ बोझिल मन व्यथा के भार से पग डगमगाते
बत्तियाँ जलती रहीं बढ़ता रहा पथ में तिमिर भी
भ्रांत हो जाते सभी यदि तुम नहीं सत्पथ दिखाते
ठहर जाते चरण सब पगडंडियों के मोड़ पर ही
सब दिशाओं में न यदि तुम दीप बनकर जगमगाते।।
सूखता ही जा रहा रस मधुर रिश्तों का निरंतर
जिंदगी खुद मौत से संबंध जोड़े जा रही थी
हो गया कम परस्पर संवाद अपनों से यहाँ पर
स्नेह-सरिता का मनोहर बाँध तोड़े जा रही थी
उजड़ जाता मानवों का लोक सारा उस समय ही
जो नहीं संदेश जीवन का समय पर तुम सुनाते।।
(81)
युद्ध के उन्माद से थी त्रस्त दुनिया
शांति का पैगाम मंगलमय सुनाया
हुआ जब आजाद भारत आर्यवर ने
सही आजादी दिलाने गीत गाया।।
चेतना व्रत की जगे हर आदमी में
संहिता आचार की सुंदर बताई
‘संयमः खलु जीवनम्’ उद्घोष देकर
सादगी की राह श्रेयस्कर दिखाई
नशा कारण नाश का है जिंदगी में
बोधदायी पाठ जन-जन को पढ़ाया।।
सत्य ही है सार इस संसार में बस
प्रेरणा दी सत्य में निष्ठा जगाने
चलाया अभियान झेल विरोध भारी
प्रतिष्ठा ईमानदारी की बढ़ाने
नहीं विचलित हो कभी सन्मार्ग से मन
अडिग रहना सत्य पर तुमने सिखाया।।
रूढ़ियों की सघन कारा तोड़ा तुमने
बंद अनगिन जागरण के द्वार खोले
मंत्र श्रेयस्कर दिए जीवन-काल के
जिंदगी में इंद्रधनुषी रंग घोले
स्वस्थता परिवार और समाज में हो
पंथ वह सीधा-सरल तुमने दिखाया।।
(क्रमशः)