वित्त सुरक्षा की अपेक्षा चारित्र रूपी वृत की सुरक्षा ज्यादा आवश्यक: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 5 अगस्त, 2022
संत शिरोमणी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्न यह किया गया है कि भगवान! क्या एकांत बाल मरकर नरक, तिर्यंच, मनुष्य या देवगति में पैदा हो सकता है। एकांत बाल असंयमी होता है, वह मिथ्या दृष्टि हो सकता है और सम्यग्-दृष्टि भी हो सकता है। पहले चार गुणस्थानों में जो मनुष्य है, वे एकांत बाल होते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व भी हो सकती है, परंतु व्रत-संयम नहीं है। ये चार गुणस्थानों वाले मनुष्य हैं, ये नरक आदि चारों गति में पैदा हो सकते हैं। भगवान ने उत्तर भी यही दिया है कि नरक का आयुष्य या चारों गति में किसी भी गति का आयुष्य बाँधकर उस गति में पैदा हो सकते हैं। जो सम्यक्त्वी है, अव्रती है, वह उस अवस्था में आयुष्य बंध करेगा तो वह देवगति का ही करेगा। अन्य गति में नहीं जाएगा।
परंतु जो मिथ्यात्वी है, वह नरक, तिर्यंच, मनुष्य या देवगति में जा सकता है। इसी से जुड़ा प्रश्न है कि कोई एकांत पंडित मनुष्य है, वह नरक में, तिर्यंच में, मनुष्य में, देवगति में पैदा हो सकता है क्या? जो साधु है, कोई अव्रत नहीं है, उस साधु को एकांत पंडित कहा गया है। त्याग-विरति की अपेक्षा से उसे पंडित कहा गया है। एकांत पंडित है, वह अगली गति का आयुष्य बंध कर भी सकता है और नहीं भी कर सकता है।
एकांत पंडित मोक्ष में चले जाएँ तो अगली गति का बंध होगा ही नहीं। जो मोक्ष में नहीं जाएगा और एकांत पंडित है, वो न नरक गति का, न तिर्यंच गति का, न मनुष्य गति का आयुष्य बंध करेगा, एकांत वह देवगति में ही जाएगा। जो बाल पंडित है, श्रावक है, पंचम गुणस्थान वाला है, वो मरकर कहाँ जाएगा? उत्तर दिया गया कि उस अवस्था में अगर आयुष्य बंध करेगा तो न नरक में, तिर्यंच में न मनुष्य गति में जाएगा, वह तो देवगति का आयुष्य बंध कर देवों में ही जाएगा। प्रश्न किया गया कि वह साधु तो है नहीं फिर और कहीं क्यों नहीं जाएगा? उसका कारण है कि वह बाल पंडित-श्रावक है, वह साधुओं के संपर्क में आता है। साधुओं के संपर्क में आकर उनके वचन सुनता है और वचन सुनकर वह त्याग-प्रत्याख्यान कर लेता है। एक सम्यक्त्वी जीव भी देवगति में पैदा होता है, तो फिर ये तो ऊँचा श्रावक है। सम्यक्त्व के साथ व्रत भी है। पाँचवें गुणस्थान वाला है।
बताया गया है कि एकांत बाल है, जो मिथ्यात्वी है, वो महा आरंभ करे तो वह नरक में पैदा हो सकता है। उन्मार्ग की देशना दे दे तो तिर्यंच गति में पैदा हो सकता है। कषाय की अल्पता है तो एकांत बाल मनुष्य गति में भी पैदा हो सकता है। अकाम निर्जरा करता है, तो देवगति में जा सकता है। पुनर्जन्म के संदर्भ में अनेक बातें आगमों में प्राप्त होती हैं। श्रावक बाल पंडित होते हैं, श्रावक के मन में यह भावना रहे कि वह दिन धन्य होगा जब मैं साधु बनूँगा। घर-परिग्रह, परिवार को छोड़कर अणगार बन जाऊँ। जब तक साधु न बन सकूँ तब तक जितना हो सके त्याग-प्रत्याख्यान करने का प्रयास करूँ। श्रावक के बारह व्रतों को ग्रहण करने का प्रयास करूँ, जिससे मेरा अव्रत कम हो सके और आगे जाकर मुझे साधना स्वीकार करने का प्रयास हो। श्रावक्त्व में रहते हुए भी त्याग-संयम को बढ़ाने का प्रयास करें। ताकि मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ सकें।
व्यापार कार्य में ईमानदारी रखने का प्रयास करें। पारदर्शिता रहे, वृत्ति के साथ में धर्म को जोड़ दो। दो शब्द हैं-वृत्त और वित्त। वृत्त यानी चारित्र की संरक्षणपूर्वक सुरक्षा करनी चाहिए। वित्त तो आता है, चला जाता है। धन में कमी आ गई बड़ी बात नहीं है पर चरित्र में कमी आना बहुत बड़ी कमी जीवन में हो सकती है। चरित्र का संबंध तो आगे तक का है। गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी श्रावक की आत्मा बहुत ऊँची हो सकती है। शीघ्र ही वह मोक्षश्री का वरण करने वाला बन सकता है। श्रावक जो बाल पंडित है, वह श्रद्धावान हो। यथार्थ के प्रति श्रद्धा हो। जो जिनेश्वर भगवान ने प्रवेदित किया वो सत्य ही है। देव, गुरु, धर्म के प्रति श्रद्धा हो। श्रावक अपने आपमें पदवी है। और पद जीवन भर रहे न रहे पर श्रावक तो जीवन भर रहा जा सकता है। श्रावक्त्व का पद आगे भी काम आ सकेगा। संस्थाओं में श्रावक कार्यकर्ता हो। श्रावक की आगे देवगति ही है।
कालूयशोविलास की विवेचना करते हुए पूज्यप्रवर ने फरमाया कि परमपूज्य कालूगणी के जीवन में आकर्षण था। उसका उदाहरण है, हरमन जैकोबी जो बहुत बड़े विद्वान व्यक्ति थे। वे पहले वि0सं0 1928 में भारत आए थे, बाद में वि0सं0 1970 में भारत में आए थे। उस समय जोधपुर में जैन साहित्य सम्मेलन हुआ था। जोधपुर में चुरू निवासी केशरीचंद कोठारी उनसे मिले, बातचीत की और तेरापंथ और पूज्यकालूगणी के बारे में बताया और उनसे मिलने को कहा। सारी बात समझकर जैकोबी लाडनूं में कालूगणी से मिले।
जैकोबी पूज्य कालूगणी के दर्शन कर बहुत प्रभावित होते हैं। तेरापंथ के सिद्धांतों को वे ध्यान से समझते हैं। तेरापंथ की साधुचर्या, तेरापंथ दर्शन और तेरापंथ दीक्षा समारोह से वे बहुत प्रभावित होते हैं। साधु-साध्वियों की कलाकृतियाँ एवं हस्तलिखित प्रतिलिपियाँ दिखाई गई। सूक्ष्म अक्षर लिखे पत्र दिखाए तो वे चकित होते हैं। जैन आगमों से संबंधित जिज्ञासा रखते हैं। कालूगणी उनकी जिज्ञासा का विस्तार से समाधान करते हैं। तीन दिन बाद वे जाने लगे तो जन सभा में कालूगणी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं कि मुझे नई जानकारियाँ मिली हैं। मेरे को तेरापंथ के विषय में पहले से जानकारी होती तो मैं दो सप्ताह का समय लेकर आता। जुनागढ़ में विद्वानों की सभा में उन्होंने तेरापंथ एवं कालूगणी का उल्लेख किया था। इस भारत यात्रा में मुझे तीन चीजें अविस्मरणीय होती हैं-(1) भगवान महावीर के समय की साधुचर्या को प्रत्यक्ष देखने का अवसर मिला। (2) जैन आगम के पाठ का तर्क संगत अर्थ मिला। (3) मैंने सपत्नीक दीक्षा देख ली। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।