अपने समय को व्यर्थ कार्य में नहीं अपितु अच्छे कार्यों में लगाएँ: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 9 अगस्त, 2022
समयज्ञ, क्षेत्रयज्ञ, आत्मयज्ञ, आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि जैन दर्शन में छः द्रव्यों का निरूपण हुआ है, जो काफी प्रसिद्ध है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय। हमारी दुनिया में पदार्थ दो प्रकार के होते हैं, एक तो वो जो भार युक्त होते हैं। दूसरे वे जो भार हीन होते हैं। प्रश्न यह किया गया कि भंते! ये धर्मास्तिकाय है, वह गुरु है या लघु है या गुरु-लघु है या अगुरु लघु है? गौतम के नाम उत्तर दिया गया कि धर्मास्तिकाय न तो गुरु होता है, न लघु होता है। न गुरु-लघु होता है, किंतु अगुरु लघु होता है। वह न भारी है, न हल्का है। भारहीन है। इसमें कोई भार नहीं है।
एक बात स्पष्ट है कि जो अमूर्त्त होगा, उसमें भार होगा भी कैसे? उसमें कोई वर्ण, गंध, रस, स्पर्श नहीं है। भार उसी पदार्थ में होगा, जिसमें स्पर्श हो। रस, गंध और वर्ण हो। एक पुद्गलास्तिकाय हो ऐसा है, जिसमें स्पर्श, रस, गंध और स्पर्श होता है। बाकी के जो द्रव्य हैं, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल और जीवास्तिकाय इनमें कोई स्पर्श, रस, गंध और वर्ण नहीं होता है। ये अमूर्त्त है। ये पाँचों न गुरु हैं, न लघु हैं, न गुरुलघु हैं। ये तो अगुरु लघु होते हैं। इनमें भार नहीं हो सकता है। निश्चय में ऐसा कोई पदार्थ नहीं होता जो एकदम भारी है, हल्का नहीं होता। हल्का और भारी सापेक्ष है। शरीर रहित शुद्ध जीव है, उसमें भी कोई भार नहीं वो भी अगुरु लघु है।
समय भी अगुरु लघु होता है। ये कर्म जो लगे हुए हैं, वे अगुरु लघु है। जो चतुर्स्पशी होता है, वो अगुरु लघु होता है। आठों स्पर्श वाला गुरु लघु होता है। धर्मास्तिकाय ऐसा द्रव्य है, जो संपूर्ण लोक में फैला हुआ है। धर्मास्तिकाय हमारे गति क्रिया में बड़ा सहायक होता है। उसका बड़ा उदासीन भाव है। स्थिरता के लिए अधर्मास्तिकाय का सहयोग लेना होता है। स्थान देने वाला आकाशास्तिकाय है। काल समय के रूप में वर्तना गुण वाला है। पुद्गलास्तिकाय तो हमारे जीवन में निरंतर काम आते हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय तो हमारे परोपकारी हैं, पर जीवास्तिकाय, परस्पर परोपकारी है। एक-दूसरे प्राणी प्राणी का सहयोग करते हैं। ये धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय या पुद्गलास्तिकाय पर सहयोग नहीं करते हैं। ये छः द्रव्य ही हमारी सृष्टि है, लोक है। केवल आकाशास्तिकाय है, तो अलोक है। इन प्रश्नों से हमें छः द्रव्यों के विषय में जानकारी मिल जाती है।
इन छः में अंतिम स्थान काल को दिया गया है कि काल क्या है, इसको भगवती सूत्र में अंत में क्यों बताया गया है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि पहले के पाँच में अस्तिकाय जुड़ा है, पर समय में अस्तिकाय नहीं जुड़ा है। इसलिए अस्तिकाय को पहले ले लिया गया है। एक शब्द आता है-पंचास्तिकाय। प्रदेशों का समूह यानी अस्तिकाय होता है। काल में प्रदेश नहीं होते हैं, वह तो वर्तमान है, बीतता रहता है। इसलिए समय इन पाँचों से अलग है।
कार्य करने के लिए स्थान और समय दोनों चाहिए। समय भी जरूरी द्रव्य है, तभी हमारा काम हो सकता है। हम समय को व्यर्थ जाने से बचाएँ। हम समय का सदुपयोग करें। कालूयशोविलास का विवेचन करते हुए महामनीषी ने फरमाया कि कालूगणी, ब्यावर में विराजमान है। आगे मेवाड़ की यात्रा हो रही है, छोटे-बड़े गाँवों का स्पर्श करते हुए गंगापुर पधारते हैं। वहाँ मर्यादा-महोत्सव करवाया है। 156 साधु-साध्वियों का संगम हुआ है। वहाँ से भीलवाड़ा में एक माह का प्रवास हो रहा है। मेवाड़ पर महामेघ की वर्षा हो रही है। अनेक क्षेत्रों का स्पर्श करते हुए वि0सं0 1972 का चतुर्मास करवाने उदयपुर पधारते हैं। वहाँ मालवा के लोग पूज्यकालूगणी से मालवा पधारने के लिए छः सौ लोग आते हैं। अर्ज कर रहे हैं।
साध्वीवर्या जी ने कहा कि जीवन की महान उपलब्धि है-मंगलभावना और मैत्री भावना। नमस्कार महामंत्र है वह मंगल की भावना का महामंत्र है। नमस्कार महामंत्र के एक-एक अक्षर से जो तरंगे निकलती हैं, वो व्यक्ति की अपवित्रता को भी पवित्रता में बदल देती है। यहाँ महासती दमयंती और महर्द्धिक देव के प्रसंग से समझाया कि नमस्कार महामंत्र के जप से जीव कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है। नमस्कार महामंत्र सब पापों का नाश करने वाला सब मंगलों में सर्वोत्तम मंगल है। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि गुरु का जब विश्वास शिष्य को प्राप्त होता है, तो उसे कोई खतरा नहीं होता है।