साँसों का इकतारा
(86)
ज्योतिर्मय चिन्मय आर्यदेव!
युग की आस्था के सेतुबन्ध।
तुम क्रांतिदूत भारत-सपूत
तुम महाकाव्य के मधुर छंद।।
तुम युगद्रष्टा युगòष्टा तुम
युग की गतिविधि के विज्ञाता
युगबोध दिया संबोध दिया
युग जीवन के अनुसंधाता
युग की हर जटिल समस्या का
हल खोज बने युग-निर्माता
युग की अनुगूंज सुनी तुममें
तुम युग-वाङ्मय के उद्गाता
युग की साँसों में रमण करे
गुरुदेव! तुम्हारी सुयश गंध।।
तुम तुंग हिमाचल शिखर भव्य
तुम गंगा की निर्मल धारा
तुम विमल हृदय उच्छ्वास नव्य
चमके नभ में बन ध्रुवतारा
अभिनव समाज-दर्शन देकर
काटी झट जड़ता की कारा
निज पर जड़ता की कारा
निज पर शासन: फिर अनुशासन
गुंजित नभ-धरती में नारा
अपने युग के अवधूत अमल
जनजीवन के तुम परिस्पंद।।
उत्साह उमंग रवानी का
दरिया बनकर बहना सीखा
छूने हर शिखर सफलता का
तुमने सब कुछ सहना सीखा
सुरधनुष सलोने रचे बहुत
अपने भीतर रहना सीखा
कब कैसे क्या हो पाएगा
तुमने न कभी कहना सीखा
अक्षय ऊर्जा के दिव्य कोष!
बाँटी सबको ऊर्जा अमंद।।
(87)
व्याकुल मेरे प्राण हो रहे तुम ही प्यास बुझाओ।
नील गगन में भटक रहा खग तुम ही पंथ दिखाओ।।
माप चुके तुम इस जीवन में सागर की गहराई
गुणवत्ता से हासिल कर ली सुरगिरि-सी ऊँचाई
विगत अनागत तार तोड़कर वर्तमान में लाओ।।
चाह तुम्हारी इस धरती पर स्वर्गलोक आ जाए
दृश्य जगत से आगे है जो मानव उसको पाए
तुम ही शांत सुधा की अविरल धारा यहाँ बहाओ।।
है मानव दिग्भ्रांत उसे अब चौराहे भटकाते
दृष्टि दिशा गति दे उसको तुम मंजिल तक पहुँचाते
कुंठाओं को तोड़ सृजन की बंदनवार सजाओ।।
(क्रमशः)