साधु की आध्यात्मिक खुराक है आगम स्वाध्याय: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 25 अगस्त, 2022
पर्युषण पर्व का दूसरा दिन-स्वाध्याय दिवस। महामनीषी, परम आराधक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि आत्मवाद, कर्मवाद और लोकवाद आदि-आदि सिद्धांत जैन दर्शन में वर्णित है। दस धर्मों का भी वर्णन आता है। हमारी सारी साधना, हमारे तीर्थंकर, तीर्थ ये किसी सिद्धांत पर आधारित है। जैन दर्शन का एक सिद्धांत आत्मवाद है। आत्मा अनंत, अनादि काल से है। आत्माएँ अंत को भी प्राप्त नहीं होगी। अनंत-अनंत जन्म-मरण हर आत्मा ने कर लिए। जैन शासन में भगवान महावीर वर्तमान अवसर्पिणी के इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के चौबीसवें और अंतिम तीर्थंकर के रूप में प्रतिष्ठित है। पर्युषण की इस आराधना में हम भगवान महावीर से भी जुड़ रहे हैं। अनेक जन्मों की यात्रा है। आत्मा हाथी में भी समाविष्ट हो जाती है और कुंथु में भी समाविष्ट हो सकती है। जैसी परिस्थिति है, उसके अनुसार अपने आपको ढाल लेना अच्छा होता है।
आत्मा फैलती है तो कभी पूरे लोक में फैल जाती है। अनंतकाय या निगोद के जीव किस प्रकार अनंत रूप में एक शरीर में रह जाते हैं। साथ में कैसे रहना ये शिक्षा निगोद के जीवों से ली जा सकती है। सबकी अलग-अलग आत्माएँ होती हैं। आदमी को सामंजस्य भी बिठाना होता है। जटिल प्रकृति वाले को भी साथ में रखना सामंजस्य हो जाता है। सहज करना अच्छी बात है। सब जगह प्रकृति को मत देखो, हमारे संघ की संस्कृति को देखो। विनय-अनुशासन को देखो। हम अपनी उदारता को बढ़ाने का प्रयास करें। दीये के प्रसंग से समझाया कि आत्मा किस तरह फैल सकती है। जंबूद्वीप में महाविदेह क्षेत्र भी है। जहाँ तीर्थंकर हमेशा रहते हैं। भगवान महावीर के 27 भवों में प्रथम भव नयसार के प्रसंग को विस्तार से समझाया।
साधुओं को दान देने का मौका मिले, वो भी अच्छी बात है। नयसार को दान देने का अवसर मिला और संतों को मार्ग बताने का प्रयास किया। संतों ने भी उसको मोक्ष-धर्म का रास्ता बता दिया। नयसार ने भावपूर्ण वंदना की। उस जन्म में नयसार को सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई। संतों की सेवा करना सम्यक्त्व प्राप्ति का कारण बन सकती है। अनंत-काल की यात्रा में वो जन्म धन्य है, जिसमें सम्यक्त्व रत्न प्राप्त हो जाता है। जैन दर्शन में सम्यक्त्व का बड़ा महत्त्व है। सम्यक्त्व की प्राप्ति हो और सम्यक्त्व निर्मल रहे। वह सत्य है जो जिनेश्वर भगवान ने प्रवेदित किया है। यथार्थ के प्रति श्रद्धा है, यह सम्यक्त्व है। जिनेश्वर भगवान कभी झूठ बात नहीं बोलते।
आज स्वाध्याय दिवस है। स्वाध्याय ज्ञान प्राप्ति का, जानने का एक सशक्त माध्यम बनता है। पढ़ना चितारना, कंठस्थ करना ज्ञान वृद्धि के उपाय हैं। परमपूज्य आचार्य तुलसी और आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने कितना ज्ञान अर्जित किया था। कंठस्थ ज्ञान के साथ उच्चारण शुद्ध हो। लेखन भी हमारा शुद्ध हो। बोलने में भी ध्यान दें। शुद्ध उच्चारण से ज्ञान अच्छा रह सकता है। आगम स्वाध्याय बड़ा महत्त्वपूर्ण है। टीका-चूर्णि साथ हो तो स्वाध्याय में आसानी हो सकती है। जयाचार्य की जोड़ों का भी महत्त्व है। ज्यादा श्रम करना सार्थक हो सकता है। आगम स्वाध्याय साधु की एक खुराक है। आगमेत्तर ग्रंथों को भी पढ़ें। स्वाध्याय करते रहें और कराते रहें। संयम जीवन को पोषण देने वाला स्वाध्याय बन सकता है। अमृत सींचन संयम को मिल सकता है। कंठस्थ ज्ञान को सुरक्षित रखने का उपाय है-चितारना करो। हम स्वाध्याय की आराधना करते रहें। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने कहा कि गौतम ने भगवान को पूछा कि जीव स्वाध्याय से क्या प्राप्त करता है। भगवान ने उत्तर दिया कि वह जीव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय या क्षयोपशम करने के लिए स्वाध्याय करना चाहिए। ज्ञान को बढ़ाने के लिए बहुश्रुत साधु से जिज्ञासा भी करनी चाहिए। मुख्य मुनि महावीर कुमारजी ने कहा कि सहनशीलता से सफलता मिलती है। समाज-परिवार में रहते हुए आदमी में प्रमोद भावना हो। व्यक्ति शांति के लिए अपने गुस्से को शांति से जीते। दस लक्षण धर्म को समझाया। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने कहा कि कपट भाव सभी गुणों का नाश कर देता है। धर्म मुक्ति का द्वार है। संतोषी आदमी हमेशा सुखी रहता है, यह संतों की वाणी है। अनासक्त जीवन जीने का आधार धर्म है। मुनि राजकरण जी, मुनि ध्रुवकुमार जी, मुनि सत्यकुमार जी ने एवं साध्वी ज्ञातयशा जी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।