साँसों का इकतारा
ु साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा ु
(6)
सत्य की पहचान हो तुम
विमल स्वर्ण विहान हो तुम
भीड़ गीतों की गली पर
मौन अनुसंधान हो तुम॥
चिर नवीन प्रवीण हो तुम
एक अनुपम सीन हो तुम
लग रहे रंगीन फिर भी
आत्मलय में लीन हो तुम॥
सहज उजले प्रात हो तुम
सतत ज्योति-प्रपात हो तुम
ताप हरते हर मनुज का
सृजन की सौगात हो तुम॥
नित नए निर्माण हो तुम
इस जगत के त्राण हो तुम
स्वप्न भी हो सत्य भी हो
शास्त्र और पुराण हो तुम॥
मधुर सुमन पराग हो तुम
विपुल विमल विराग हो तुम
त्याग है जीवंत फिर भी
विलक्षण अनुराग हो तुम॥
फूल-सी मुस्कान हो तुम
योगियों के ध्यान हो तुम
हो नए प्रतिमान जग में
नियति भाग्यविधान हो तुम॥
ज्ञान के नव कोष हो तुम
स्वयं में परितोष हो तुम
पोष दोनों को न मिलता
इसलिए निर्दोष हो तुम॥
साधना के धाम हो तुम
सहज ललित ललाम हो तुम
काम की सीमा नहीं पर
पूर्णत: निष्काम हो तुम॥
सरल हो समभाव हो तुम
प्रवर प्रबल प्रभाव हो तुम
जिंदगी के हर सफर में
सहज सतत बहाव हो तुम॥
सुकृत-पारावार हो तुम
सफलता साकार हो तुम
हृदय है अविकार अविचल
शांति के अवतार हो तुम॥
अमल हो अनिकेत हो तुम
सिद्धि के संकेत हो तुम
श्वेत है परिवेश सारा
द्वैत में अद्वैत हो तुम॥