आत्मा के आसपास
ु आचार्य तुलसी ु
प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा
मूल्यांकन की निष्पत्ति
जैन-साधना-पद्धति, ‘पे्रक्षा’ नाम नवीन। सांगोपांग सजीव-सी, संचालित स्वाधीन॥
करता जो अन्वेषणा, धर उत्साह अमंद। अनायास मिलता उसे, प्रेक्षा-मधु-मकरंद॥
प्रश्न : आगम-संपादन कार्य के मध्य प्राचीन जैन-तत्त्वों की खोज का दृष्टिकोण निर्मित हुआ। खोज आगे बढ़ी और उसमें आपको जैन आगमों में विकीर्ण ध्यान के मूल्यवान तत्त्व उपलब्ध हो गए। आपने उनका मूल्यांकन किया और विस्तृत ध्यान-परंपरा को पुन: प्रस्थापित कर दिया। वह ध्यान-परंपरा प्राचीन समय में भी ‘प्रेक्षा’ के नाम से ही पहचानी जाती थी या उसका आपने नया नामकरण कर दिया है?
उत्तर : जिस जैन साधना पद्धति की खोज चल रही थी, जिसके अनुसंधान हेतु तीव्र प्रयत्न हो रहा था, उसके कुछ सूत्र हमें जल्दी उपलब्ध हो गए। उपलब्ध सूत्रों के आधार पर ध्यान के प्रयोग सफल रहे। तब हमें विश्वास हो गया कि यह पद्धति जन-जन के लिए उपयोगी हो सकती है।
नामकरण के संदर्भ में विचार किया जाए तो यह तथ्य स्पष्ट है कि प्राचीन जैन-साधना-पद्धति संवर और निर्जरा इन दोनों में समाविष्ट है। ध्यान का संबंध इन दोनों के साथ है। वह उत्कृष्ट निर्जरा है। संवर ध्यान-योग जैसा आगमिक प्रयोग भी उपलब्ध है। इस दृष्टि से यही नाम आज भी स्वीकृत किया जा सकता था, पर प्रायोगिक नवीनता के साथ अभिधागत नवीनता भी आवश्यक प्रतीत हुई। प्रेक्षा नाम का स्थिरीकरण बहुत सोच-समझकर किया गया है। उसकी पृष्ठभूमि में रहे चिंतन को मैं स्पष्ट कर देता हूँ
साधना-पद्धति आत्मा के स्वरूप को प्रकट करने के लिए होती है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का स्वरूप हैअनावृत्त चैतन्य, अप्रतिहत शक्ति और सहज आनंद (वीतरागता)। आत्मा का स्वरूप प्रकट होता है आत्मा के ध्यान से। संपिक्खए अप्पगमप्पएणंआत्मा से आत्मा को देखो, इस साधना-सूत्र में आत्मा का ध्यान करने पर बल दिया गया है। आत्मा का ध्यान उसे जानने और देखने के अतिरिक्त हो भी क्या सकता है? आत्मा का पहला लक्षण हैचैतन्य। चैतन्य ज्ञान-दर्शनात्मक स्थिति है। ज्ञान और दर्शन का अर्थ हैजानना और देखना। जानने और देखने को छोड़कर कोई ध्यान होगा, वह किसी अन्य विषय का ध्यान होगा, आत्मा का नहीं। इस आधार पर इस पद्धति के दो नाम दिए जा सकते थेविपश्यना और प्रेक्षा। आचारांग में इन दोनों नामों का प्रयोग उपलब्ध है।
बौद्धों में ‘विपश्यना’ नाम बहुप्रचलित है। इन वर्षों में समय-समय पर विपश्यना शिविर भी समायोजित होते रहे हैं। विपश्यना शब्द एक प्रकार से बौद्ध-साधना पद्धति का वाचक हो गया। इसलिए जैन साधना पद्धति का नाम ‘प्रेक्षा’ ही उचित लगा। आज यह पद्धति ‘प्रेक्षाध्यान पद्धति’ के रूप में सुप्रसिद्ध हो चुकी है। इसका मूल ोत हैआचारांग। अन्य ोतों में दूसरे आगम, आगमों के उत्तरवर्ती ग्रंथ तथा श्रमण भगवान महावीर के बाद ढाई हजार वर्ष की लंबी अवधि में हुए ध्यान के प्रयोग, अनुभव और परिणामों का संकलन है। इन सब ोतों को सामने रखकर सर्वांगीण रूप से चिंतन कर इस साधना पद्धति तथा इसके वर्तमान नाम और स्वरूप को मान्यता दी गई है।
प्रश्न : आपने जिस पद्धति का निर्धारण किया है, उसका आधार हमारे आगमों में विकीर्ण प्राचीन तत्त्व ही हैं। ढाई हजार वर्ष के इस लंबे समय में प्राचीन मान्यताओं में काफी परिवर्तन हो रहा है। आज हमें नई वैज्ञानिक दृष्टियाँ भी उपलब्ध हो रही हैं। ऐसी स्थिति में किसी प्राचीन परंपरा का ही अनुसरण करना रूढ़ता नहीं होगी? क्या इसके साथ नए तत्त्वों का सामंजस्य नहीं बिठाया जा सकता?
उत्तर : प्रेक्षाध्यान पद्धति को सांगोपांग बनाने के लिए वर्तमान की वैज्ञानिक दृष्टियों का भी उपयोग किया जा रहा है। किसी भी पद्धति के साथ जब तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं जुड़ता है, वह वर्तमान में उतनी उपयोगी नहीं हो सकती। क्योंकि आज का मानव वैज्ञानिक होता जा रहा है। किसी भी तत्त्व को उसकी वैज्ञानिकता के अभाव में स्वीकृति देना कठिन होता जा रहा है। वैसी स्थिति में साधना पद्धति में भी यदि शरीर-शास्त्र और मानव-शास्त्र की खोज का यथेष्ट उपयोग नहीं होता है तो वह पद्धति पुरानी और अवैज्ञानिक प्रमाणिक हो जाती है। यद्यपि पुरानी होना कोई बुरी बात नहीं है, पर कोई भी प्राचीन पद्धति नए तत्त्वों से वंचित क्यों रहे? हमने प्राचीन तत्त्वों के साथ नए तथ्यों और अनुभवों का उपयोग किया है। इसलिए यह पद्धति प्राचीन होते हुए भी अर्वाचीन है। इसमें नई और पुरानी दोनों दृष्टियों का सामंजस्य है।
कुछ लोगों का अभिमत है कि विज्ञान के आगमन से साधना या अध्यात्म का लोप होता जाता है। किंतु हमारी धारणा इससे सर्वथा विपरीत है। हम इस बात में विश्वास करते हैं कि साधना के साथ विज्ञान का योग होने से नए रहस्यों का उद्घाटन हो सकता है।
प्रेक्षा का स्वरूप स्थिर करने की दृष्टि से प्राचीन ग्रंथ देखे गए। वहाँ विशिष्ट चैतन्य-केंद्रों का उल्लेख है। उन केंद्रों की संख्या पाँच, सात या नौ बताई गई है किंतु आज के शरीरशास्त्री चैतन्य केंद्रों की संख्या सात सौ तक बताते हैं। इन केंद्रों का परस्पर क्या संबंध है? स्वभाव परिवर्तन की दिशा में ये कहाँ तक सहयोगी हो सकते हैं? आदि तथ्य काफी स्पष्टता से ज्ञात हो सकते हैं और उनका लाभ उठाया जा सकता है। इसी प्रकार ग्रंथि-तंत्र, शारीरिक, विद्युत, शरीर में होने वाले रासायनिक परिवर्तन आदि के संबंध में विज्ञान के द्वारा प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध हो सकती है। दो वर्षों के प्रयोग से यह तथ्य भी प्रमाणित हो गया है कि प्रेक्षा की पद्धति शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों दृष्टियों से लाभप्रद है। प्रेक्षा-पद्धति में किसी प्रकार का आग्रह नहीं है। इसमें प्राचीन तत्त्वों को जितनी सहजता से स्वीकृत किया गया है, उतनी ही सहजता से नवीन तत्त्वों को समाविष्ट किया गया है। इस दृष्टि से यह हमारी स्वोपज्ञ पद्धति है। फिर भी इसमें कल्पना का कोई तत्त्व नहीं है, इसलिए यह हमारी उसी प्राचीन परंपरा की अभिव्यक्ति है, जो नए परिवेश में नई प्रस्तुति दे रही है। भविष्य में संभावित नए-नए प्रयोगों से इसके स्वरूप में विशिष्ट निखार आएगा, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है।