साँसों का इकतारा

स्वाध्याय

साँसों का इकतारा

(103)

है विकास का उत्सव युग की नई कहानी।
भरा नया उल्लास संघ में नई रवानी।।

जहाँ-जहाँ देखा तुमने साम्राज्य तिमिर का
मोड़-मोड़ पर वहाँ सहस्त्रों दीप जलाए
बिछी हुई थी जहाँ एक पतली पगडंडी
बना राजपथ उभय छोर उद्यान खिलाए
देकर सत्संस्कार सभी का तेज निखारा
गण-गौरव गतिमान कहाँ है इसकी सानी।।

गण-नभ में खोली विकास की नई दिशाएँ
सूरज से तेजस्वी बन धरती पर आए
युग-निर्माण चेतना भर दी गीत-गीत में
छाले प्राणों के रिसते जीभर सहलाए
आस्था जन-जन की निर्बंध निछावर जिस पर
मनमोहक वे मुद्राएँ जानी-पहचानी।।

पता नहीं क्या योग कुंडली में था ऐसा
कदम-कदम संघर्षों की सौगात निराली
काँटों से खुद का निबाह कर सुमन सजाए
पिया जहर भी मान सदा इमरत की प्याली
मिली कामयाबी जो भी अभियान चलाया
बनी आज भी यह दुनिया उस पर दीवानी।।

नए शिखर छूने की रही तमन्ना दिल में
पीछे मुड़कर कभी देखना नहीं सुहाया
अपने बलबूते पर युग की धारा बदली
नहीं निराशा को सपने में गले लगाया
हर पंछी को दिया आसरा बन शतशाखी
तुलसी-सुमिरन से जागे ताकत रूहानी।।

(104)

इस महासूर्य ने सूरज का उजली किरणों से भाल छुआ
प्राणों में आए नए प्राण प्रज्ञा का शुभ अभिषेक हुआ।।

इन विद्रुमपंखी मेघों ने आलोक कहाँ से यह पाया?
इस इंद्रधनुष-सी सतरंगी आभा में है किसकी छाया?
यह तरुण तेज तेरापंथ का टिक सके कहाँ सुरमई धुआँ।।

बढ़ती सपाट खामोशी को अब स्वर बुलंद देना होगा
मझधारा में युग-नाव खड़ी तट तक उसको खेना होगा
विषबुझी त्रासदी दुनिया की मिट जाए पाकर दिली दुआ।।

कुदरत के गूढ़ रहस्यों को अब तुम ही सबको बतला दो
संगीत बना लें जीवन को वह कला अनूठी सिखला दो
जिसके बल से खुद उठा सके अपने जीवन का जटिल जुआ।।

दो बोध समर्पण का हमको जीवन का ढाँचा बदल सकें
गति को ही जीवन मान चलें मंजिल से पहले नहीं थकें
पीते जाएँ तन्मय होकर इन अधरों से जो अमिय चुआ।।

(क्रमशः)