न्याय का तीसरा नेत्र ‘मध्यस्थ भाव’ है

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न्याय का तीसरा नेत्र ‘मध्यस्थ भाव’ है

राजनगर।
शांत सुधारस भावना प्रबंध गं्रथ की अंतिम ‘मध्यस्थ’ 16वीं भावना पर बोलते हुए मुनि प्रसन्न कुमार जी ने कहा कि तोलने के तराजू के दोनों पलड़े बराबर नहीं रहेंगे तो मध्यवर्ती न्याय का काँटा सीधा नहीं रहेगा। ऐसे ही निष्पक्ष न्याय निर्णय तभी होता है कि न्याय करने वाला प्रियता और अप्रियता में न उलझे। ऐसे ही समाज परिवार में यदि मध्यस्थ भावना के तीसरे नेत्र को काम लिया जाए तो आपसी टकराव और तनाव नहीं बढ़ेगा। तटस्थ नहीं होने से बिखराव-तनाव बढ़ता है। धैर्यता निष्पक्षता ही मध्यस्थ भावना का तीसरा नेत्र कहलाता है। इसमें न्याय देने वाला उलझन में नहीं पड़ेगा। अपनी मन की शांति, आत्म शांति नहीं खोएगा। सामने वाले को समझाने का प्रयास करेगा, किंतु बदलने की जिम्मेदारी का तनाव नहीं रखेगा।