अप्रमत्तता की ज्योति - शासनश्री साध्वी रतनश्री जी ‘लाडनूं’
साध्वी रतनश्री जी के प्रति
साध्वी मुक्तियशा
संसार के दो पड़ाव हैं-जन्म और मृत्यु। क्षणभंगुर इस जीवन को संयम से अभिस्नात कर आत्मा की उन्नति के लक्ष्य के साथ जो चरण अंतिम क्षण तक यात्रा करते हैं। वे मृत्यु को सार्थक बना लेते हैं। रात्रि 9ः25 पर शाहीबाग के जुली बंगलो में एक सन्नाटा छा गया। एक सार्थक एवं सफल यात्रा संपन्न करने वाली शासनश्री साध्वी रतनश्री जी (लाडनूं) संसार की नश्वरता का बोध कराकर हम सभी के भीतर अप्रमत्तता का दीप जलाकर चली गई।
आपका जन्म तेरापंथ की राजधानी लाडनूं की पावन धरा पर वि0सं0 1990 फाल्गुन शुक्ला पंचमी को सुप्रसिद्ध बोकड़िया परिवार में हुआ। 17 वर्ष की अवस्था में पंजाब के प्रमुख क्षेत्र संगरूर में गुरुदेव श्री तुलसी के करकमलों से दीक्षा ग्रहण कर वि0सं0 2007 को मुमुक्षु रतनी साध्वी रतनश्री बन गई।
दीक्षा लेने के पश्चात आपको दो वर्ष तक गुरुकुलवास में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गुरुकुलवास के पश्चात शासन गौरव साध्वी कस्तूरांजी के साथ आपको 25 वर्ष तक रहने का योग मिला जो आपकी संसारपक्षीय माता की बहन थीं। साध्वी कस्तूरांजी के कठोर अनुशासन में रहकर आपने प्राकृत, संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी भाषा का गहन अध्ययन किया। गुरुदेव तुलसी ने उसी संगरूर की पावन धरा पर वि0सं0 2036 में आपको अग्रगामी बनाया। अग्रगामी बनकर आपने दूसरी बार दक्षिण भारत की यात्रा की तथा सेवाकेंद्र में तीन चाकरी करके अपने ऋण से उऋण हुए।
मैंने देखा आपके भीतर अनेक विशेषताएँ थीं कुछ विशेषताओं का जिक्र करना चाहूँगी। जिसने मुझे बहुत ज्यादा प्रेरित किया।
स्वाध्याय प्रियता: ज्ञान के अनमोल खजाने को प्राप्त करने का सीधा सुगम तथा शक्तिशाली साधन है-स्वाध्याय। मैंने देखा आपका अप्रमत्त जीवन हर समय स्वाध्याय में लगा रहता। आगम एवं चौबीसी, आराधना का स्वाध्याय आपको बहुत प्रिय था। स्वास्थ्य की अनुकूलता होती तो लगभग पाँच-सात घंटे स्वाध्याय व जाप में ही व्यतीत होता। आपका कहना था-स्वाध्याय से मेरे मन में प्रसन्नता रहती है तथा विचारों की निर्मलता बढ़ती है।
गंभीरता: जीवन तो हर व्यक्ति जीता है, लेकिन जागरूकता एवं गंभीरता के साथ आपने जीवन जीया। प्रत्येक कार्य, प्रत्येक बात को गहराई से सुनते। कोई बात ऐसी होती कि किसी को बताना नहीं है, कहना नहीं है, मजाल है वो बात आपके मुख से निकलवा लें। किस बात को किस व्यक्ति के सामने प्रस्तुत करना है वह अद्भुत कला थी साध्वीश्री जी के पास।
सेवाभावना: तेरापंथ धर्मसंघ में दीक्षित होने वाले प्रत्येक सदस्य को आज्ञा, मर्यादा एवं सेवा के संस्कार जन्मघुट्टी में प्राप्त होते हैं। आचार्यश्री तुलसी के शब्दों में सेवा धर्म महान है, सेवा करने से कोई छोटा नहीं होता, सेवा एक ऐसा चामत्कारिक शब्द है जिसमें सबको अपनत्व में बाँधने की क्षमता है। आपका कहना था सेवा मन से होनी चाहिए, प्रसन्न्ता से होनी चाहिए, ताकि रोगी की आधी बीमारी ठीक हो जाए। सेवा का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत कर पाँच दिनों में तीनों साध्वियों को स्वस्थ कर दिया।
वाक्सिद्धि: साध्वी रतनश्री जी की वचन
सिद्धि भी बेजोड़ थी, उनकी मांगलिक का इतना प्रभाव था कि कोई व्यक्ति चाहे डॉक्टर हो, सी0ए0 कर रहा हो, तपस्या कर रहा हो, विजनेश कर रहा हो, मुहूर्त हो। तेयुप, तेरापंथ सभा, महिला मंडल कोई भी हो, मांगलिक सुने बिना कोई कार्य नहीं करते, वो कहते आपने मंगलीक सुना दी अब वह कार्य अवश्य ही
सफल होगा।
विशेष-दीक्षा: साध्वी रतनश्री जी द्वारा बहन लक्ष्मी कुमारी की दीक्षा और अनशन-अंतरात्मा के जागरण का संबंध भाव जगत से होता है, कब जागृति का सूर्य उदय हो, कहा नहीं जा सकता। बाव निवासी अहमदाबाद प्रवासी लक्ष्मी बहन संघवी, धर्मपत्नी छोटूभाई संघवी को गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी की नौवीं पुण्यतिथि पर चौविहार उपवास के दिन भिक्षुस्वामी, तुलसीगणी, स्वयं के कुलदेवता खेतरपाल जी का संकेत मिला, अब आत्मा को देख एवं अपना उद्धार कर। बहन ने उसी समय अपने मन की भावना प्रेक्षा विश्व भारती में विराजित साध्वी रतनश्री जी आदि साध्वियों के समक्ष रखी। साध्वीश्री जी ने कहा-लक्ष्मी बहन संथारा करना कोई सरल कार्य नहीं है, बड़ा कठिन काम है। बहन वीरांगना की तरह बोल पड़ी, मैंने तो गुरु की साक्षी से तिविहार संथारा पचख लिया। अब आप गुरु आज्ञा से विधिवत् पचखा दो। बहन की प्रबल भावना को देखते हुए गुरु दृष्टि की आराधना करते हुए साध्वीश्री जी ने 8 दिन तिविहार एवं 18वें दिन चौविहार में अनशन पचखाया।
आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आज्ञा से अहमदाबाद के शाहीबाग में समणी स्थितप्रज्ञा जी आदि चार समणियों की साक्षी से, साध्वी रतनश्री जी (लाडनूं) ने बहन लक्ष्मी को साध्वी लक्ष्मी कुमारी बना दिया। यह एक इतिहास की विरल घटना थी।
जीवन के नौवें दशक में साध्वीश्री जी को आचार्यश्री महाश्रमण जी की आज्ञा से शासनश्री साध्वी रमावती जी ने रात्रि 8 बजकर पाँच मिनट पर तिविहार तथा 9ः15 पर चौविहार अनशन कराके, देखते-देखते 9ः25 पर हमेशा के लिए अलविदा हो गई। शाहीबाग तेरापंथ भवन में विराजित मुनि कुलदीप कुमार जी स्वामी तथा मुनि मुकुल कुमार जी स्वामी का हर मिनट-मिनट में समाचार प्राप्त हो रहे थे। साध्वीश्री जी की स्थिति कैसी है। जागरूकता रखना। संथारे बिना मत जाने देना। मुनिद्वय का अत्यंत आदर का भाव था साध्वीश्री के प्रति। जो अंतिम समय तक रहा।
हम नतमस्तक हैं अप्रमत्तता की ज्योति के प्रति, एक ही भावना आपकी आत्मा उत्तरोत्तर विकास करती हुई शीघ्र ही मोक्षश्री का वरण करें।