परस्पर सहयोग से चित्त समाधि रह सकती है : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 3 अगस्त, 2021
अकषाय की साधना की ओर गतिमान आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि ठाणं के नौवें स्थान के सातवें सूत्र में कहा गया हैहमारी सृष्टि में जीवों का बहुत बड़ा समुदाय है। सिद्ध जीव भी होते हैं और संसारी जीव भी होते हैं। सिद्ध जीव तो एकाकार से हैं। सिद्ध जीव हमारे काम भी नहीं आते हैं। वो तो विराजमान हैं। वे न तो प्रवचन देते हैं, न पथदर्शन। न बात करते हैं, न अनुशासन, न सलाह देते हैं।
हमारे काम में आने वाले संसारी जीव होते हैं। तत्वार्थ सूत्र में कहा गया हैधर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल के काम आता है, सहायता करता है। धर्मास्तिकाय गति में सहायक अधर्मास्तिकाय स्थिति में सहायक है। आकाशस्तिकाय से स्थान मिलता है। काल से समय का निर्धारण होता है। पुद्गलास्तिकाय पुद्गल हमारे कितने काम आते हैं। ग्रंथ भी हमें पंथ दिखाने वाला बन सकता है।
छ: द्रव्यों में ये पाँच तो दूसरों का सहयोग करते हैं। ये जीवास्तिकाय किसका सहयोग करते हैं। इन पाँचों से जीव सहयोग लेता तो है, पर देता कुछ नहीं है। विशेष सहयोग उनको नहीं देते हैं, पर एक जीव दूसरे जीव का परस्पर सहयोग करता है।
ठाणं में कहा गया है कि संसारी समापन्नक जीव नौ प्रकार के होते हैं। पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजसकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुरीन्द्रिय और पंचेंद्रिय। पाँच तो स्थावर है, एक इंद्रिय वाले हैं। इन जीवों का परस्पर सहयोग
भी मिलता है। पृथ्वी, पानी, हवा, अग्नि और वनस्पति कितने काम आती है। इनके बिना हमारा काम भी नहीं चलता है। पशु भी काम आते हैं।
कभी-कभी प्रश्न आता है कि क्या गाय का दूध पीना हिंसा नहीं है? दूध तो उसके बछड़े के लिए है। आदमी गाय का भरण-पोषण करता है, उसकी रक्षा भी करता है। इतनी सेवा करता है, तो गाय का दूध पीए तो कौन सी बुरी बात है। गौ तो माता है, हम भी उसके बच्चे समान हैं। तो दूध पी लेता है। ये परस्पर सहयोग है।
आदमी-आदमी में परस्पर सहयोग होता है। माँ-बाप बच्चे की सेवा करते हैं, पालते हैं। बच्चा बड़ा होने पर माँ-बाप की सेवा करता है। साधु संस्था में भी परस्पर सहयोग चलता है। यूँ अनेक प्रकार से जीवों का परस्पर सहयोग चलता रहता है। साधुओं को हर आवश्यकता गृहस्थों से पूरी होती है। साधु भी गृहस्थों को सहयोग करते है। गुरुदेव तुलसी का चुरू का प्रसंग समझाया।
यह परस्पर सहयोग ठीक चलता है, तो जीवन जीने में सुविधा रहती है। एक-दूसरे के पूरक बनेंगे तो समाधि रहेगी। स्थावर जीव बस जीवों की सेवा करते हैं तो त्रस जीव स्थावर जीवों का भी सहयोग करते हैं। परस्पर सहयोग से चित्त समाधि रह सकती है।
माणक महिमा का आगे का विवेचन करते हुए पूज्यप्रवर ने फरमायापूज्य मघवागणी हमारे पाँचवें आचार्य थे, जिन्हें वीतराग कल्प कहा गया है। मघवा गणी तो गुरुदेव तुलसी के दादा गुरु थे, उनकी महाप्रयाण शताब्दी सरदारशहर में मनाई थी। मघवा गणी के मुनि अवस्था के प्रसंग बताए एवं आचार्य काल के प्रसंग भी समझाएँ। मघवा गणी एक तरह फक्कड़ आचार्य थे।
मुनि मघवा 14 वर्ष की आयु में सरपंच बन गए थे। माणक गणी पूज्य मघवा गणी के ही उत्तराधिकारी थे। पूजयप्रवर ने सम्यक् दीक्षा स्वीकार करवाई।
मुनि निकुंजकुमार जी ने पूज्यप्रवर से 16 की तपस्या के प्रत्याख्यान लिए।
मुख्य नियोजिका जी ने राजा श्रेणिक और कालसौरिक के घटना प्रसंग को समझाया। मानसिक हिंसा से भी पाप लगता है। राजा श्रेणिक के नरक टालने के प्रयास जो भगवान महावीर ने बताए थे, उन प्रसंगों को समझाया। आदमी का जो आयुष्य कर्म बंध जाता है, वो टूटता नहीं है। बलपूर्वक धर्म नहीं कराया जा सकता है।
साध्वीवर्या जी ने कहा कि पदार्थ के स्वभाव को नहीं बदला जा सकता है। पदार्थ की पर्याय बदलती रहती है। अध्यात्म जगत में आदमी के स्वभाव में परिवर्तन किया जा सकता है।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में सोनल पिपाड़ा ने गीत की प्रस्तुति दी। संरक्षक लादुलाल हिरण, डॉ0 रोशनलाल पितलिया, दिलीप रांका, संजय घोड़ावत ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।