अकिंचन अपरिग्रही साधु को देवता भी नमस्कार करते हैं : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 13 अगस्त, 2021
जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि साधु को साधना करनी है। साधना का साधन शरीर है। साधना करनी है, तो शरीर को रखना अपेक्षित है। शरीर को रखना अपेक्षित है, तो भोजन करना भी अपेक्षित है। भोजन करना है, तो भोजन की व्यवस्था का होना भी अपेक्षित है।
प्रश्न होता है, शरीर को भोजन दें ही क्यों? क्यों टिकाए रखें शरीर को? दीक्षा ली और साथ में चौविहार संथारा भी ले लें फिर न गोचरी जाना, न आहार लाना। काम सिद्ध हो जाए। कभी-कभी यह रास्ता भी काम में लिया जाता है। परंतु यह रास्ता सर्वाग्रंथि नहीं लगता।
दीक्षा और संथारा साथ होगा तो फिर साधुपन का कालमान सीमित हो जाएगा। लंबा साधुपन होगा तो वह निर्जरा और सेवा कर जाएगा। प्राय: दीक्षा और संथारा साथ नहीं होते। शरीर को भोजन दिया जाता है। तीर्थंकरों ने निरवद्य वृत्ति का निर्देश-देषना दी है। मोक्ष की साधना का हेतु है शरीर। इसलिए शरीर की सुरक्षा करनी है। सुरक्षा के लिए उसको भोजन देना है। भगवान महावीर ने लंबी तपस्याएँ की थीं तो बीच-बीच में आहार भी लिया था। जनोद्धार भी इस शरीर से ही हो सकेगा।
गृहस्थ व्यापार करते हैं, कर्मचारी रखते हैं, तो कर्मचारी को वेतन भी देना होता है। शरीर ऐसा कर्मचारी है कि बिना वेतन काम करता रहे, इतना भोला नहीं है। शरीर काम करेगा तो भोजन भी करेगा। इसकी सुरक्षा का ध्यान भी रखो तो यह काम कर सकेगा।
साधु भोजन कैसे ले? साधु भोजन के लिए भिक्षा करे, क्योंकि साधु के पाँच महाव्रत हैं। पहला महाव्रत हैसर्व प्राणातिपात विरमण। भोजन के निर्माण में भी हिंसा होती है। साधु को हिंसा से बचने का प्रयास करना है, तो साधु क्या करे?
खाना पकाए तो हिंसा, दूसरों से पकवाए तो भी हिंसा, पकने-पकाने का अनुमोदन करोगे तो किसी रूप में हिंसा के साथ जुड़ जाओगे। मीत भोजन भी न लेना, मोल भोजन भी न लेना, न लिवाना, न अनुमोदना करना। हिंसा से बचने के लिए साधु भ्रमर की तरह कार्य करें। भिक्षा ग्रहण करो। थोड़ा-थोड़ा जगह-जगह से ग्रहण करो। चीड़ी चोंच पर पानी ले ले तो समुंद्र के क्या फर्क पड़ेगा।
जैन धर्म में भिक्षा की निर्मल विधि है। साधुओं के लिए खाना बनाना कल्पित नहीं है। साधु की भिक्षा में मांसाहार न हो, परिहार्य है। शाकाहार भोजन भी साधु के लिए न बना हो। ये मुख्य दो नियम हैं। और भी कई नियम हैं। अहिंसा और अपरिग्रह पर आधारित भिक्षा विधि आगम में बताई गई है।
भिक्षा विधि इसलिए है कि साधु अहिंसक है और अकिंचन है। साधु हिंसा से और परिग्रह से बचे। माँग-माँगकर लाना बड़ा दुष्कर काम है। साधु को तो हर चीज माँगकर लेना पड़ता है, पर माँगना भी हमारी साधना है। इसमें साधु की हीनता नहीं है। साधु के क्या स्वाभिमान, क्या अभिमान। यह तो साधु का अकिंचन व्रत है।
किंचन-कंचन जिसके पास है व दुनिया का बड़ा आदमी नहीं है। अमीर अपनी संपत्ति का मालिक हो सकता है, दुनिया का नहीं। साधु ऐसा है, जिसने त्याग कर दिया, लालसा, आशा, वांच्छा छोड़ दी, वो मानो अपना मालिक बन गया।
तीन लोक का मालिक वह है, जो अकिंचन है। परिग्रह का त्याग कर दिया है, वो किसी अपेक्षा से त्रेलोक्य का मालिक बन जाता है। साधु भीखमंगा नहीं है, वो तो त्यागी है, उसको जो दान देता है, वो धन्य हो जाता है। करोड़ों को संपत्ति के मालिक साधु के चरणों में झुकते हैं। देवता भी उसे नमस्कार करते हैं, जिसका मन धर्म में रमा रहता है।
माँगना हमारी तपस्या है। कितना बड़ा त्याग है। त्याग एक संपदा है, परिग्रह से दूर रहना साधु की निर्मलतामय साधना होती है। यहाँ शास्त्रकार ने इस सूत्र में नौ कोटि परिशुद्ध भिक्षा का निरूपण किया है। न हनन करना, न करवाना, न अनुमोदन करना। न पकाना, न पकवाना, न पकवाने का अनुमोदन करना। न मोल लेना, न मोल लिवाना, न मोल लेने वाले का अनुमोदन करना। इस सूत्र से एक संकेत हमें मिल सकता है कि साधु का जीवन कितना त्यागमय होता है।
माणक महिमा का विवेचन करते हुए पूज्यप्रवर ने फरमाया कि कालूजी स्वामी बड़ा के प्रति कालूगणी व तुलसीगणी की अच्छी भावना थी। वे तीन आचार्यों के सम्माननीय रहे हैं। मोती जी स्वामी के बारे में भी बताया।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। सम्यक्त्व दीक्षा ग्रहण करवाई।
मुख्य नियोजिका जी ने सम्यक्त्व के बारे में विस्तार से समझाया। जो नव तत्त्व को जानता है, उसके सम्यक्त्व होता है। धर्म के प्रति श्रद्धा का भाव है, तो भी उसके सम्यक्त्व हो सकता है।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में सुमित नाहर, योगेश चिंडालिया, प्रदीप भंडारी, आंचल दक, पुष्पा पामेचा ने भावों की अभिव्यक्ति दी।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।