शरीर का उपयोग आध्यात्मिक लाभ उठाने के लिए करें : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 8 अगस्त, 2021
जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देषणा प्रदान करते हुए फरमाया कि शास्त्रकार ने शरीर की एक स्थिति का चित्रण किया है कि हमारा यह औदारिक शरीर है, नौ ोतों के झरने वाला शरीर है। नौ ोतों से पदार्थ बाहर आते रहते हैं। नौ ोत हैंदो कान, दो नेत्र, दो नाक, मुँह, उपस्थ और अपज। ये नौं ऐसे द्वार हैं, जहाँ से पदार्थ बाहर आते रहते हैं।
शरीर से पसीना भी आता है। संभवत: पसीना जहाँ से निकलता है उसकी विभक्षा यहाँ नहीं की गई है। पुद्गल मनोज्ञ-अमनोज्ञ हो सकते हैं। दो कान द्वार हैं, इनसे मैल निकलते हैं। शरीर में कितनी अशुद्धि है, जिसे हम लिए चल रहे हैं। भीतर है, तब तक घृणा नहीं होती बाहर निकलते ही घृणा हो जाती है।
अशुचि है, यह शरीर है। वैराग्य का भी कारण बनता है, यह अशुचित्व का भाव। जिस शरीर के प्रति मैं आसक्त हो रहा हूँ, वह शरीर तो कितना गंदगी से संपन्न है। भगवान मल्लीनाथ ने भी मानो इस अशुचि के आधार पर अपने मित्रों-राजाओं को बोध देने का प्रयास किया। उस प्रसंग को समझाया।
कान, नाक, आँख, मुँह आदि से अनेक रूप में पदार्थ निकलते हैं। वर्तमान में तो मास्क से स्वयं की रक्षा व दूसरों की रक्षा कर रहे हैं। जो काम प्रेरणा से नहीं होता वो कोरोना ने कर बताया। कोरोना से तो एकांतवास सा हो गया। यह दुनिया की स्थिति है कि जो काम आदमी नहीं कर सकता वो काम प्रकृति-नियति करा देती है।
ोत है, उनसे पदार्थ निकलता है, उनसे गंदगी निकलती है, वो एक बात है। पर ोतों को हम सुशोभित कैसे करें। आध्यात्मिक और गुणात्मक दृष्टि से देखें तो कान की शोभा हैज्ञान का श्रवण करो। एक प्रवचनकार के बोलने के कारण कितने कान शोभायमान हो जाते हैं। सुनने का, जानने का मौका मिल जाता है।
सुनते-सुनते ज्ञान वृद्धि हो सकती है। सुनते-सुनते कई बार समस्या का समाधान मिल सकता है। व्याख्यान देने की कला का भी स्वगत किया जा सकता है। सुनने से अनेक पापों से बचा जा सकता है। सुनने से जिज्ञासा पैदा हो सकती है। आँखों का बढ़िया उपयोग करें। आँखों से संतों के दर्शन किए जा सकते हैं। ग्रंथों को पढ़ा जा सकता है।
नाक से प्राणायाम करने में, दीर्घ-श्वास का प्रयोग करने के काम में लिया जा सकता है। नाक को ध्यान-साधना के प्रयोग में सहयोगी बना सकते हैं। मुँह से हम कितना अच्छा बोलकर स्वयं व दूसरों को लाभान्वित कर सकते हैं। मुँह से व्याख्यान देकर वाणी से पढ़ाकर उपयोग किया जा सकता है और भी अंग हैं, जिनसे ये पदार्थ निकलते हैं। कुल ये नौं ोत हैं।
यह शरीर पाप का साधन बन सकता है और धर्म का माध्यम-साधन भी बन सकता है। हम यह प्रयास करें कि इस शरीर को धर्म का साधन बनाएँ, अच्छे कार्यों में शरीर का उपयोग कर सकते हैं। यह तो हाड-मांस से बना है। गंदगी इसका एक पक्ष है। शरीर का दूसरा पक्ष है कि शरीर से कितना बढ़िया उपयोग किया जा सकता है।
हम शरीर का लाभ उठाएँ। इसे तपस्या में, सेवा में, ज्ञानार्जन में, चिंतन-मनन, लेखन जो भी उपयोगी हो आध्यात्मिक अनुष्ठानों में इसका उपयोग करने का प्रयास करें। गृहस्थ भी जितना हो सके, आध्यात्मिक लाभ उठाने में संयुक्त करें, यह काम्य है।
माणक महिमा का विवेचन करते हुए पूज्यप्रवर ने फरमाया कि मघवागणी सरदारशहर विराज रहे हैं। संतों में ऊहापोह है कि गुरुदेव की शारीरिक स्थिति ठीक नहीं है। संघ सनाथ रहे ऐसा काम होना चाहिए। मघवागणी भी आगामी व्यवस्था का चिंतन कर रहे। फागुन सुदी चौथ को मघवागणी युवाचार्य नियुक्ति पत्र लिख देते हैं। महासती नवलांजी को वि0सं0 1949 को पत्र सौंप दिया। फिर साधुओं को बुलाकर प्रेरणा दे रहे हैं। साथ में फरमा दिया कि माणकलाल आलोयणा थे ही दिया करो। हाजरी भी थे लिया करो। संघ को चिंता मुक्त कर दिया।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी ने कहा कि कुमार श्रमण केशी और गौतम गणधर के मध्य हुए संवाद को व्याख्यायित करते हुए कहा कि धर्म का वैशष्ट्य है कि धर्म कल्पवृक्ष और चिंतामणी रत्न से भी ज्यादा सब कुछ देता है, जिसका वह संकल्प भी नहीं करता है।
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि सबका अपना-अपना चिंतन होता है। सबके शास्त्र अच्छे हो सकते हैं, पर शास्त्रों का निर्माण जिन मनीषियों ने किया है, उनका मंतव्य यही रहा है कि शास्त्र उपशम-शांति प्रदान करने वाले होते हैं। शास्त्रज्ञ वही व्यक्ति हो सकता है, जिसका मन शांत हो।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में व्यवस्था समिति उपाध्यक्ष ज्ञानचंद कांठेड, मंत्री रजनीश नोलखा, मंत्री एकता ओस्तवाल, मैना कांठेड़, निष्ठा गांधी, पारस
आंचलिया, संजय हिरण ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी। संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।