आचार्यश्री तुलसी के 79वें दीक्षा दिवस पर विशेष
संसार में अनेक प्राणी जन्म लेते हैं। परंतु कलात्मक जीवन जीने वाले विरले ही व्यक्ति होते हैं। आचार्यश्री तुलसी जिनका जन्म राजस्थान प्रांत में नागौर जिले के लाडनूं शहर में ओसवाल समाज के धर्मनिष्ठ खटेड़ परिवार में पिता झूमरमलजी, माता वदनाजी के घर हुआ। आप बाल्यकाल से ही प्रतिभावान थे। आपकी मुखाकृति सबको आकृष्ट करने वाली थी। बचपन से ही माता-पिता ने आपको धर्म-ध्यान में लगा दिया। लाडनूं में निरंतर चारित्रात्माओं का प्रवास होने से प्रतिदिन दर्शन सेवा करने से आपमें वैराग्य का जागरण हो गया। और विक्रम संवत् 1982 अर्थात् पौषकृष्णा पंचमी को तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य पूज्य कालूगणी के करकमलों से भाई-बहन दोनों ने एक साथ जैन भगवती दीक्षा ग्रहण की।
दीक्षा के पश्चात आपने साधुचर्या का सम्यक् पालन करते हुए अध्ययन का क्रम प्रारंभ कर दिया और 16 वर्ष की अवस्था में आप एक कुशल अध्यापक बनकर संतों को अध्यापन कराने लग गए। आपकी अध्ययन अध्यापन की शैली से पूज्य गुरुदेव कालूगणी पूर्ण प्रसन्न थे। मात्र 22 वर्ष की अवस्था में आपको अपना उत्तराधिकारी बना दिया। हमें पूज्य कालूगणी की पैनी-दृष्टि एवं साहसी निर्णय पर नाज होता है कि इतने विशाल धर्मसंघ का दायित्व एक 22 वर्षीय युवा संत को सौंप दिया। मात्र तीन दिन के बाद ही कालूगणी का स्वर्गवास हो गया, परंतु आचार्यश्री तुलसी ने जिस तरह से धर्मसंघ को उन्नति के शिखर पर पहुँचाया उसे युग ही नहीं शताब्दियों तक स्मरण किया जाएगा।
जब देश स्वतंत्र हुआ तब आपने स्वस्थ व्यक्ति निर्माण की दृष्टि से एक आंदोलन चलाया था जो अणुव्रत के नाम से विश्वविख्यात हुआ। देश के मूर्धन्य विद्वान्, राजनेता, उद्योगपति, पत्रकार, धर्माधिकारियों का आपको पूरा सहयोग मिला। सभी ने अणुव्रत को असंप्रदायिक धर्म बताकर सहर्ष स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि आप किसी भी पंथ, ग्रंथ या संत को मानें परंतु नैतिक और निर्व्यसनी बनें, जिससे परिवार, समाज, देश और स्वस्थ विश्व का निर्माण हो सकता है। आपका मानना था कि व्यक्ति सुधार से ही विश्व सुधार हो सकता है। क्योंकि व्यक्ति से ही परिवार, समाज, देश और विश्व की उन्नति संभव है। आपने पंजाब से कन्याकुमारी, कोलकाता से राजस्थान तक की पैदल यात्राएँ करके इसका प्रचार-प्रसार किया। आपके यशस्वी उत्तराधिकारी आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने भी इसे खूब आगे बढ़ाया और वर्तमान में आचार्यश्री महाश्रमण जी भी देश-विदेश की विस्तृत यात्राएँ करके सतत सबका मार्गदर्शन कर रहे हैं।