साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(117)

बदली जमीं आसमां बदला
अब सब कुछ बदला-बदला है।
बदल गई दुनिया सपनों की
क्रूर नियति ने हमें छला है।।

ढले गगन में चाँद-सितारे
मन के सब अरमां बदले हैं
बदल गए मौसम के तेवर
पीड़ा के हिमगिरि पिघले हैं
रंग-बिरंगी इस दुनिया में
बुरा कौन है कौन भला है।।

एक उजाला था वह ऐसा
जिसने पूरी सदी उजाली
प्राण भरे हर पान-फूल में
था विचित्र कोई वनमाली
उसका यों अदीठ हो जाना
बतलाओ किसको न खला है।।

गिरी गाज धरती पर ऐसी
हुआ समय का चक्र अचल है
वर्ष और युग जितना लम्बा
हुआ जिंदगी का हर पल है
कैसे मानस को समझाऊँ
धीरज का पानी उथला है।।

जब तक था वह विषय नयन का
तब तक पूरा मोल न आंका
सदा निहारा ऊपर-ऊपर
गहराई में कभी न झाँका
खोले नयन बोधि के फिर भी
समझ न पाया मन पगला है।।

आगत में जीना सिखलाया
बना स्वयं कैसे अतीत वह
मुखरित रोम-रोम में सुषमा
काव्य मधुर या गजल गीत वह
अर्घ्य और क्या यह नन्हा-सा
आस्था का इक दीप जला है।।

(क्रमशः)