बढ़ाएँ बड़ों का सम्मान
समणी जगतप्रज्ञा
आदरणीया समणी स्थितप्रज्ञा जी, जिन्हें समण श्रेणी की प्रथम समणी बनने का गौरव प्राप्त हुआ। कई विशेषताओं का समवाय था आपका जीवन। अप्रमत्त जीवनशैली, स्वाध्यायशीला, स्वावलंबी व दृढ़-मनोबल की धनी थी डॉ0 समणी स्थितप्रज्ञा जी। मुझे यद्यपि आपके साथ लंबी यात्रा करने का सौभाग्य तो प्राप्त नहीं हुआ, पर मेरी प्रथम पर्युषण यात्रा आपके साथ हुई। उस समय एक माह आपके साथ रहने का अवसर प्राप्त हुआ। उस समय मैं नवदीक्षित थी, बहुत कुछ आपसे सीखा; एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है- पर्युषण यात्रा के दौरान सिल्चर (आसाम) जाना हुआ। आपके साथ हम तीन समणी थे-समणी प्रसन्नप्रज्ञा जी, मैं तथा गुप्तिप्रज्ञा जी। वहाँ गोचरी के घरों की लिस्ट बनी हुई थी। वो लिस्ट आपके पास थी। आपकी तबियत ठीक नहीं होने से आप विश्राम कर रही थी। एक भाई लिस्ट माँगने आया। मैंने समणी प्रसन्नप्रज्ञा जी से पूछकर लिस्ट उस भाई को दे दी। शाम के समय आपने उस लिस्ट के लिए पूछा तो मैंने कहा-वो तो मैंने एक भाई को दे दी। यह सुन स्थितप्रज्ञा जी ने मुझसे कहा-आपने मेरे से बिना पूछे कैसे दे दी? मैंने कहा-आप पोढ़ाए हुए थे तो मैंने समणी प्रसन्नप्रज्ञा जी से पूछकर दे दी तो कहा-क्या आपके आगीवान समणी प्रसन्नप्रज्ञा जी हैं? मैंने कहा-नहीं, मेरे आगीवान तो आप ही हैं। मेरे से भूल हो गई। आगे से मैं ध्यान रखूँगी। आप मेरे से नाराज हो गयी। मैंने अनुनय-विनय किया तथा गलती स्वीकार की, तब आपने स्नेह की वर्षा करते हुए कहा-आप इतने समझदार हो फिर ऐसी गलती कैसे की। आगे से ध्यान रखना। आपने बड़े प्रेम से मुझे समझाया। तब से मुझे एक सीख मिल गई कि काम चाहे छोटा ही क्यों न हो पर बड़ों से पूछकर ही करना चाहिए।
आपको बाँट-बाँटकर खाना बहुत अच्छा लगता था। गौतम ज्ञानशाला में जब भी आपके कोई न्यातीले या परिचित आते और कोई द्रव्य आता तो आप शारीरिक साता न होते हुए भी एक-एक कमरे में जाकर, एक-एक को याद रखकर सभी को द्रव्य बाँटते। बड़ी उदारता थी आपके जीवन में। आपने तीनों मनोरथ पूर्ण कर साध्वी स्थितप्रभा के रूप में अंतिम साँस ली और सदा-सदा के लिए विदा हो गई। मैं आपके आध्यात्मिक उत्थान की मंगलकामना करती हुई। आप द्वारा प्रदत्त संस्कारों को जीवित रख सकूँ, ऐसी कामना करती हूँ।