ऋजुभूत आत्मा साध्वीश्री स्थितप्रभाजी
आदरणीया समणी स्थितप्रज्ञा जी समण श्रेणी में नींव का पत्थर थी। तेरापंथ के इतिहास में साध्वी स्थितप्रभा जी के रूप में अंकित हो गईं। उनका जीवन आगम सूक्त ‘सो ही उज्जुयभूयस्स’-धर्म ऋजुभूत के अंतःकरण में रहता है-को चरितार्थ करने वाला था। उनको आदर देने वालों और अनुकूल रहने वालों को उनकी छप्पर फाड़ कृपा मिलती थी। जो व्यक्ति उनके प्रतिकूल वर्तन करना उसको वे सीधी-सपाट भाषा में कहने का भी संकोच नहीं किया करती थी। उनका जीवन खुली किताब की तरह था। अंदर-बाहर एक जैसा। कूटनीति वे नहीं जानती थी।
गणाधिपति तुलसी के समय मुझे उनके साथ गोहाटी सेंटर की यात्रा का अवसर प्राप्त हुआ। मैं तो उनसे काफी छोटी थी, वर्ग में भी तीसरे नंबर पर थी, पर मुझे उनका खूब अनुग्रह मिला। ये मेरा सौभाग्य रहा कि उनको मेरा काम और मेरी मनुहार दोनों पसंद आ गईं। इस छोटी-सी सेवा के बदले मुझे उनसे दो अनमोल चीजें प्राप्त हुईं-प्रेरणा और प्रोत्साहन। वे मुझे शीत बनाने के लिए अवसर देते। उस यात्रा के दौरान मैंने कई गीतों की रचना की। बड़े-बड़े कार्यक्रमों में भाषण देने के अवसर दिया करते थे। अंग्रेजी पढ़ने के लिए न केवल प्रोत्साहित करते वरन् अंग्रेजी जानने वाली कन्याओं की व्यवस्था के साथ-साथ समय भी दे दिया करती थी। उस यात्रा के दौरान मुझे विकास करने का अच्छा अवसर मिला।
मैं देखती थी वे अच्छी अध्ययनशील थीं। ज्ञान भी अच्छा था लेकिन ‘मैं-मैं’ का अहंकार नहीं था। भाषा और व्यवहार में कभी भी बड़प्पन की बू नहीं आती थी। जीवन के अनेक उतार-चढ़ावों में कभी वे हारी नहीं। और जीवन का अंत तो गुरुकृपा से ‘चट मंगनी पट शादी’ जैसा हो गया। बीमारी, दीक्षा और संथारा-सारा दो दिन का खेल---बस। साध्वी स्थितप्रभा जी की आत्मा उत्तरोत्तर मोक्ष की तरफ बढ़े। यही मंगलकामना।