साध्वी स्थितप्रभा जी के प्रति आध्यात्मिक उद्गार
धन्य धन्य समणी स्थितप्रज्ञा, फैलाया नव उजियारा।
संयम संथारा स्वीकारा।।
संपन्न हुई विजयी यात्रा, गूँजे चिहुँदिशि में जयकारा।
निर्मल परिणामों की धारा।।
आधि व्याधि उपाधि मुक्त जो परम समाधि का पथ चुनते।
दर्शन-ज्ञान-चरण के सूत्रों से संचेतन पट बुनते।
उनका नाम चमकता जैसे नभमंडल में ध्रुवतारा।।
कहते ज्ञानी शांत संतुलित संयम जीवन एक कला।
पंडित मरण वरण मृत्युंजय बनने की है महाकला।
तन की ममता छूटे तब ही टूटे कर्मों की कारा।।
गुरु आज्ञा से जयनगरी जयपुर में स्वल्प प्रवास हुआ।
साध्वीभगिनी की सन्निधि पा मानस में उल्लास हुआ।
सहसा हुआ असातोदय उपचार सघन सभा द्वारा।।
मनोबली श्रमशीलता दृढ़-संकल्पी प्रतिभा की स्फुरणा।
संयम-नियमनिष्ठ, परहित तत्पर दिल में अतिशय करुणा।
ध्यान जाप में रहता था झंकृत साँसों का इकतारा।।
धर्मसंघ में गुरुकरुणा से पाया जो आत्मिक वैभव।
गणनंदन वन में कर अर्पित बना लिया हर पल उत्सव।
स्थितप्रभा साध्वीजी को प्रभु महाश्रमणजी ने तारा।।
लय: जागो बहनों नव प्रभात---