साँसों का इकतारा
(121)
जो शूलों के पथ पर चलते रहे निरंतर
उन चरणों से गति की तीव्र प्रेरणा पाएँ।
नहीं आँख में था जिनके निज-पर का अंतर
गीत गा रही उनके देखों दसों दिशाएँ।।
बंद हमारी पलकों को यदि खोल सको तो
जीवन के मग में उतरेगा स्वयं सवेरा
आस्था की अनमोल संपदा तोल सको तो
अभिनव रेखाचित्र रचेगा चतुर चितेरा
एक बात बतला दो तुम यदि बोल सको तो
दूर हुए क्यों हमसे इतने होकर अपने
सुधा घोल दो अब कण-कण में घोल सको तो
कब होंगे सच देखे हमने जितने सपने
अगम अगोचर रूप तुम्हारा कहाँ मिलेगा
धरती नभ पर कैसे उसे खोजने जाएँ।।
जो भी आया याचक बनकर द्वार तुम्हारे
खुशियों से उसका पूरा दामन भर डाला
सूख रहे थे अधर प्यास से जब जन-जन के
बाँटा सबको इमरत खुद ने पीकर हाला
सूने-सूने से लगते सब गाँव नगर ये
जिस तट पर तुम खड़े वहाँ गीतों का मेला
अनिमिष नयनों से कब से सब बाट निहारें
प्राणों का पंछी यह उड़ता आज अकेला
मीठी यादें बसी तुम्हारी जो चितवन में
घर हो या परदेश उन्हीं से जी बहलाएँ।।