क्रोध पर विजय प्राप्त करना परमवीरता है : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 21 अगस्त, 2021
कषाय विजेता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देषणा प्रदान करते हुए फरमाया कि शास्त्र में गुस्से के बारे में बताया गया है। गुस्सा सामान्य आदमी को प्रतिकूल परिस्थिति के उत्पन्न हो जाने पर आ जाता है। गुस्से के अनेक प्रकार या अनेक स्तर भी होते हैं। एक गुस्सा चिंतनपूर्वक सत्यक्ष्य, कृत्रिम रूप में ऊपरी तौर पर किया जाता है। दूसरा गुस्सा मन में आवेश के रूप में आता है, उस पर नियंत्रण करना भी व्यक्ति के लिए, स्वयं के लिए मुश्किल हो जाता है। फिर व्यक्ति कुछ भी कर देता है।
गुस्सा किसी भी रूप में है, वो कषाय का एक प्रकटीकरण है। परंतु गुस्से-गुस्से में अंतर होता है। यों तो गुस्सा मोहनीय कर्म का ही एक अंग है। भीतर में मोहनीय कर्म न हो तो गुस्सा आ ही नहीं सकता। आवेश का उपादान तो भीतर में मोहकर्म ही है पर कुछ निमित्त मिल जाते हैं, जिससे गुस्सा उभार को प्राप्त हो जाता है। परंतु विशेष बात यह होती है कि निमित्त के मिलने पर भी आदमी शांत रह सके।
गुस्सा करना कोई बड़ी बात नहीं है। गुस्से के संदर्भ में आदमी की तीन स्थितियाँ होती हैं। एक तो आदमी इतना कमजोर है कि कुछ बोल ही नहीं सकता। मन में तो आक्रोश है, पर बोलने पर नुकसान हो सकता है। वह एक विवशता की स्थिति है। दूसरी स्थिति हैसामने वाला बोलता है, तो बोलने की क्षमता है, डर नहीं है। सामने वाले को दो की चार सुना देता है।
तीसरी स्थिति यह है कि सामने वाला कुछ अंट-शंत बोल रहा है, मेरे में वापस जवाब देने की क्षमता भी है, फिर भी मेरा धर्म है, सहन करना। वापस कुछ नहीं बोलना, शांत रहता है। यह सबसे उत्तम स्थिति है।
क्षमा वीरस्य भूषणम्। अहिंसा, क्षमा, समता अपना धर्म है। जो बोल नहीं सकता, वो तो दयनीय आदमी है। उसमें ताकत नहीं है। उसमें तो कायरता-निर्बलता है। जो बोलता है, उसमें थोड़ी वीरता है। पर वह परम वीर है, जो ताकत होने पर भी नहीं बोलता।
आज चतुर्दशी है, हाजरी का भी उपक्रम है। चारित्रात्माओं का धर्म है, सहन करना। अनावश्यक किसी को कष्ट पहुँचे ऐसी बात ही नहीं बोलना। हमारा वाणी का संयम है, तो व्यवहार अच्छा रह सकता है। हम परम वीरता की ओर आगे बढ़ें। ईंट का जवाब पत्थर से देना साधु-संस्था का काम नहीं।
हमारा आदर्श है, ईंट का जवाब फूलों से दो। गड़े मुर्दे न खोदें। यह एक प्रसंग से समझाया। छोटी बातों को महत्त्व न दें। व्यवहार में उदारता हो। किसी के प्रति हमारा असद् व्यवहार न हो जाए। किसी से सिद्धांतों के बारे में चर्चा करनी है, तो गुस्सा न करें। गुस्सा करना हार है। अपना आधार रखा जा सकता है।
लगभग गुस्सा कहीं काम का नहीं है। बात भले कड़ी हो, शांति से बात कह दो। समता भाव में रहने का प्रयास करें। शास्त्रकार ने जो दस बातें बताई हैं, उनसे यही प्रेरणा लेनी चाहिए। आचार्यप्रवर ने मुनि कुमार श्रमण जी से गुस्से के बारे में उनके चिंतन को पूछा। मुनि उदित कुमार जी स्वामी से भी मंतव्य पूछा। दोनों संतों ने अपने भाव व्यक्त किए। छोटे साधु-साध्वियों के भी मंतव्य लिए। आवेश में आकर डाँटना काम का नहीं है। गुस्सा आदमी का शत्रु है।
हाजरी का वाचन
पूज्यप्रवर ने हाजरी का वाचन करते हुए मर्यादावली को समझाया। ईर्या-समिति और मौन का संबंध है। विहार में चलते हुए मौन रहें तो अच्छी साधना हो सकती है। गृहस्थ भी चलते हुए फोन पर बात न करें। प्रतिक्रमण में बातें न करें। यह रोज की कमाई है। उच्चारण शुद्ध रहे। दो काम साथ में न करें। आचार-विचार और मर्यादाओं को समझाया।
साधु-साध्वियों द्वारा लेख पत्र का वाचन किया गया। पूज्यप्रवर ने शिक्षाएँ फरमायीं। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। छीतरमल मेहता, सागरमल मोगर, कुशलराम सेठिया, मधु सांखला, गौतम बोहरा ने मासखमण तपस्या के पच्चक्खाण लिए।
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि जहाँ संदेश होता है, वहाँ विद्या नहीं सीखी जा सकती। व्यक्ति में गहरी आस्था-श्रद्धा होती है, तो देवता भी उसका सहयोग करते हैं। अच्छी संगति से भावों में बदलाव आ सकता है।
साध्वीवर्या जी ने भगवान महावीर और गौतम स्वामी के संवाद को बताया। साधु भाषा का विवेक रखे। अनावश्यक और कठोर बोलने पर व्यक्ति सत्य से दूर हो जाता है। साध्वी सुषमा कुमारी जी ने बहनों को नवरंगी तपस्या की प्रेरणा दी। पूज्यप्रवर की अभिवंदना में राकेश बोहरा, शंकरलाल हिरण, सुरेश चोरड़िया, निर्मला लोढ़ा, विजया सुराणा, मंजु नोलखा ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।