शब्द मिष्ट और भाषा शिष्ट हो तो व्यक्ति विशिष्ट बन जाता है : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 20 अगस्त, 2021
अध्यात्म के सुमेरू आचार्यश्री महाश्रमण जी ने ठाणं आगम के दसवें अध्याय के दूसरे सूत्र की व्याख्या करते हुए फरमाया कि आदमी के पास कान श्रवण शक्ति का साधन होता है। इंद्रियों की दृष्टि से एक प्रकार से उच्चस्तरीय विकसित प्राणी है। एकेंद्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय प्राणी के कान नहीं होते हैं।
श्रोतेंद्रिय, शब्द, श्रवण इन तीनों का संबंध है। कान एक इंद्रिय है, इसका ग्राह्य तत्त्व हैशब्द और उसको ग्रहण करना, सुनना यह उसका व्यापार है। हमारी दुनिया में शब्द का बड़ा महत्त्व है। पाँच विषय हैंशब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श। वक्ता को श्रोता से जोड़ने वाला और श्रोता को वक्ता से जोड़ने वाला शब्द है। वक्ता और श्रोता के बीच में शब्द होता है।
शब्द के दस प्रकार हैं(1) निर्हारीघोषवान शब्द जैसे घंटा का। शब्द जीव का भी होता है, अजीव का भी होता है, शब्द मिश्र भी होता है। (2) पिण्डिमघोष वर्जित शब्द जैसे नगाड़े की ध्वनि। (3) रूक्षजैसे कौवे का। (4) भिन्नवस्तु के टूटने से होने वाला शब्द। (5) जर्जरितजैसे तार वाले बाजे का शब्द। (6) दीर्घजो दूर तक सुनाई दे जैसे मेघ का शब्द। (7) हृस्वसूक्ष्म शब्द, जैसे वीणा का। (8) पृथकत्वअनेक बाजों का संयुक्त शब्द। (9) काकणीकाकली, सूक्ष्म कंठों की गीत ध्वनि। (10) किंकिणी स्वरघूघरों की ध्वनि।
आदमी का शब्द-भाषा मिष्ट से, शिष्ट हो तो मानो भाषा विशिष्ट हो जाती है। मौन का भी महत्त्व है, मौन से कुछ लाभ हो सकते हें। बोलना या न बोलना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात मैं इसको मानता हूँ कि बोलने व न बोलने में विवेक रखना। कहीं बोलने का महत्त्व, कहीं न बोलने का महत्त्व है। कहाँ, क्यों, कैसे बोलना या नहीं बोलनाइन चीजों का विवेक रहे।
साधु प्रवचन देते हैं, लोगों को ज्ञान मिलता है, तो उनका बोलना भी अच्छा है। कहीं न बोलना भी ठीक है। सांसारिक बातों में साधु रुचि न लें। कैसे बोलना, बोलने का प्रयोजन क्या है, उसका विवेक हो। अपेक्षा हो तो मौन भी रखना चाहिए। अनावश्यक न बोलना बड़ा मौन है। शब्द के साथ हम जुड़े हुए हैं। शब्द ज्ञान का माध्यम है।
आधार रहित बात मत लिखो, अनपेक्षित मत बोलो, यह जीवन के लिए अच्छी बात हो सकती है। शब्द का प्रयोग भी कैसे करें? एक शब्द प्रसन्नता पैदा करने वाला बन सकता है, एक शब्द खिन्नता पैदा करने वाला बन सकता है। आदमी तोलकर, सोचकर बोले, तरीके से बात करे। शब्दों का संयोजन अच्छा हो। वाणी में सरलता हो। प्रेम से बोलोगे तो मैं हार मान लूँगा।
शब्द का हम अच्छा उपयोग करें। शब्द तो बड़ा उपकारी बन सकता है। चित्त समाधी पहुँचाने वाला, प्रसन्नता पैदा करने वाला बन सकता है।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। साध्वी संवरयशा जी ने पूज्यप्रवर से 30 की तपस्या के प्रत्याख्यान किए। छीतरमल मेहता ने 33 की तपस्या के प्रत्याख्यान लिए।
मुख्य नियोजिका जी ने सम्यक्त्व के लक्षणों के बारे में विस्तार से समझाया। कर्मों का फल सबको मिलता है। सबको कर्म के फल भोगने पड़ेंगे। इसलिए भगवान ने गौतम से कहा हैहे गौतम! क्षण भर भी प्रमाद मत करो। जो जागरूक रहता है, उसके कर्म का बंधन शिथिल होता है।
साध्वी संप्रतिप्रभा जी ने सुमधुर गीत व सुंदर कहानी की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया। रमेश हिरण ने अपनी भावना अभिव्यक्त की।