साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(123)
देखा जितना पास से उतने ही अनजान।
नहीं कभी भी हो सकी तुलसी की पहचान।।

उच्छ्वासों के नीड़ को दो दृढ़तम आधार
सुयश गीत गाती रहे पल-पल साँस सितार
खिलते जाएँ सृजन के शतदल सदाबहार
तरी थमा दो हाथ में तर जाए संसार
पौरुष के प्रतिमान की हर मुश्किल आसान।।

मुग्ध तुम्हारा देखकर हर अद्भुत अंदाज
छिपा नहीं पाए कभी तुमसे मन का राज
पत्थर पर अंकुर उगे तुम ऐसे ऋतुराज
आकर्षक व्यक्तित्व वह था निश्छल निव्र्याज
याद करेगी बीसवीं सदी विपुल अवदान।।

संघर्षों में भी रही मुख पर मृदु मुस्कान
चिंता का करते सदा चिंतन से अवसान
प्रतिòोत में भी सदा रहे चरण गतिमान
किया निरंतर आर्य ने जागृति का आह्वान
उऋण नहीं उपकार से कोई भी इंसान।।

(124)
अध्यात्म जगत के शिखर पुरुष!
युग के नयनों की अभिलाषा।
तुमसे पाई है मानव ने
जीवन की सच्चाई परिभाषा।।

कर्तृत्व करिश्माई देखा
दुनिया में यश-परिमल फैली
परखे कोई अथ से इति तक
अद्भुत है जीवन की शैली
आलोक बिखेरा हर मग में
कदमों को वांछित राह मिली
पलकों की शीतल छाया में
मुरझाई मानस-कली खिली
व्यक्तित्व विलक्षण जग जाहिर
जागी जन-जन में जिज्ञासा।।

अणुव्रत प्रेक्षा का संजीवन
प्रतिदिन प्रकाम तुम बाँट रहे
करुणा का मर्म सिखाते हो
खाई दुराव की पाट रहे
हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई
पैगाम तुम्हारा प्यारा है
रिश्तों की उजड़ी दुनिया को
तुमसे मिल रहा सहारा है
उद्बोधन की गीता सुनकर
अर्जुन में जाग उठी आशा।।

हर पुरस्कार सम्मान स्वयं
तुमसे सम्मानित हो जाता
जुड़ गया तुम्हारा नाम जहाँ
वह काम सहज गौरव पाता
ऊँचाई छूती आसमान
गहराई समदर से गहरी
चरणों में प्रणत जहान हुआ
मानवता के पक्के प्रहरी
कोमल भावों का दीप जला
है मुखर आज मन की भाषा।।
(क्रमशः)