साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(125)

आँधी में तूफानों में भी
जिसकी गति में रही रवानी।
अंकित कुदरत के कण-कण में
तुलसी! तेरी अमर कहानी।।

चिंतन के वातायन खोले
बदली तुमने युग की धारा
उगा रोशनी की फसलों को
बिछा दिया तम में उजियारा
तूफाँ की हद में आकर भी
निष्ठा से पा लिया किनारा
आहत मानवता के मन को
जब-तब तुमने दिया सहारा
अंगारों पर चले अभय हो
थी कोई ताकत रूहानी।।

उन राहों पर चलकर आए
चले कभी हम साथ तुम्हारे
पूछा हर पथ ने आतुर हो
कहाँ आज वे तुलसी प्यारे
जनता की यादों में अब भी
तैर रहा है नाम तुम्हारा
बसी हुई सूरत आँखों में
किंतु न तुमको कहीं निहारा
अमियभरी वाणी सुन जनता
हो जाती पूरी दीवानी।।

घिरी जहाँ अंधियारी रातें
तुमने उजली भोर उगाई
घोर निराशा की घड़ियों में
आशा की उम्मीद जगाई
उत्पथ में भटके कदमों को
मंजिल का अहसास कराया
स्वयं धूप झेली जीवन भर
दी जन-जन को शीतल छाया
देव! तुम्हारे अवदानों की
शब्दों में चर्चा बेमानी।।

नैतिकता की अलख जगाकर
दिशा जगत की तुमने मोड़ी
नया मोड़ अभियान चलाकर
रूढ़िवाद की कारा तोड़ी
जीवन के हर विषम मोड़ पर
तुमने अनगिन दीप जलाए
कितने पथभूलों को तुमने
मंजिलगामी पथ दिखाए
देते रहना समय-समय पर
सपनों में भी भीख सुहानी।।

(क्रमशः)