साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(130)

युगद्रष्टा युगòष्टा तुलसी तुमको पा युग धन्य हो गया।
अमल तुम्हारे अवदानों से तेरापंथ अनन्य हो गया।।

देख नतीजा विश्वयुद्ध का देव! तुम्हारा अंतस दहला
दिया विशद संदेश शांति का व्यापकता का पग यह पहला
असली आजादी अपनाओ यह निर्देश तुम्हारा दूजा
हो चरित्र ऊँचा मानव का आत्म-शिवालय की है पूजा
दृश्य देखकर अधिवेशन का जन-जन मन चैतन्य हो गया।।

भारत के हर गाँव नगर में देहातों में अलख जगाई
पाँव-पाँव चलकर जन-जन तक संयम-सुर-सरिता पहुँचाई
मिशन बनाया तुमने जिसको धर्मसंघ का मिशन बना वह
संप्रदाय से मुक्त धर्म हो सफल हुआ प्रभु का सपना यह
प्यास बुझाने मानवता की अणुव्रत नव पर्जन्य हो गया।।

जीते सपनों की दुनिया में पर यथार्थ सम्मुख रहता था
अनुशासन में वत्सलता का इमरतमय निर्झर बहता था
देखी सुरगिरि-सी ऊँचाई और समंदर-सी गहराई
मूर्तिमान पौरुष नस-नस में जाग गई अनहद पुण्याई
था प्रायोगिक जीवन सारा प्रखर सहज श्रामण्य हो गया।।

क्या भक्तों की बात बताएँ दुश्मन भी अनुकूल हो गए
काँटे बिछे कभी जो मग में वे गुलाब के फूल हो गए
जिन-वाङ्मय का संपादन कर जिन-शासन की शान बढ़ाई
किया नया निर्माण संघ का विष पी सबको सुधा पिलाई
परस तुम्हारे चरणों का पा बीहड़ अभयारण्य हो गया।।

(131)

तिमिर तट पर ज्योति की फसलें उगाएँ।
मंत्र दो मासूम मन भी मुस्कुराए।।

देखते आए अभी तक अपर को हम
आत्मदर्शन की सहज ही वृत्ति है कम
क्यों कभी छाए कुहासा सोच पर भी
पुष्ट हो संकल्प रहना हर समय सम
आँख दो ऐसी कि खुद को देख पाएँ।।

जिंदगी के मर्म की पोथी पढ़ेंगे
धैर्य से इतिहास अलबेला गढ़ेंगे
नहीं छाया धूप की प्रतिबद्धता है
घाटियों के उच्च शिखरों पर चढ़ेंगे
पंख दो नभ के सितारे तोड़ लाएँ।।

धार ही जीवन नहीं माँगा किनारा
शक्ति ही साधन नहीं माँगा सहारा
रोशनी की तूलिका कर में थमा दो
सिरज लूँगी मैं स्वयं कोई नजारा
आँक लो कितनी खुली चिंतन-दिशाएँ।।

बसी आँखों में झलक वह हृदयहारी
कान में अनुगूँज शब्दों में उतारी
प्यास प्राणों की अबूझी कह रही है
रहे अधरों पर सदा अभिधा तुम्हारी
झाँक लो भीतर हृदय कैसे दिखाएँ।।

(क्रमशः)