संबोधि
ु आचार्य महाप्रज्ञ ु
क्रिया-अक्रियावाद
(18) यथा त्रयो हि वणिजो, मूलमादाय निर्गता:।
एकोऽत्र लभते लाभं, एको मूलेन आगत:॥
(19) हारयित्वा मूलमेक:, आगतस्तत्र वाणिज:।
उपमा व्यवहारेऽसौ, एवं धर्मेऽपि बुद्ध्यताम्॥ (युग्मम्)
जिस प्रकार तीन वणिक् मूल पूँजी लेकर व्यापार के लिए चले। एक ने लाभ कमाया, एक मूल पूँजी लेकर लौट आया और एक ने सब कुछ खो डाला। यह व्यापार विषयक उदाहण है। इसी प्रकार धर्म के विषय में भी जानना चाहिए।
(20) मनुष्यत्वं भवेन्मूलं, लाभ: स्वर्गोऽमृतं तथा।
मूलच्छेदेन जीवा: स्यु:, तिर्य×चो नारकास्तथा॥
मनुष्य-जन्म मूल पूँजी है। स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति लाभ है। मूल पूँजी को खो डालने से जीव नरक या तिर्यंच गति को प्राप्त होते हैं।
(21) विमात्राभिश्च शिक्षाभि:, ये नरा गृहसुव्रता:।
आयान्ति मानुषीं योनिं, कर्मसत्या हि प्राणिन:॥
जो लोग विविध प्रकार की शिक्षाओं से गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी सुव्रती हैं, सदाचार का पालन करते हैं, वे मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं क्योंकि प्राणी कर्मसत्य होते हैंजैसे कर्म करते हैं वैसे ही फल को प्राप्त होते हैं।
(22) येषां तु विपुला शिक्षा, ते च मूलमतिसृता:।
सकर्माणो दिवं यान्ति, सिद्धि यान्त्यरजोमला:॥
जिनके पास विपुल ज्ञानात्मक और क्रियात्मक शिक्षा है, वे मूल पूँजी की वृद्धि करते हैं। वे कर्मयुक्त हों तो स्वर्ग को प्राप्त होते हैं और जब उनके रज और मल काबंधन और बंधन के हेतु कानाश हो जाता है तब वे मुक्त हो जाते हैं।