संपादकीय
(प्रथम पुण्यतिथि पर श्रद्धार्पण)
तेरापंथ धर्मसंघ एक ओजस्वी एवं प्राणवान् धर्मसंघ है, जहां एक आचार-एक विचार और एक नेतृत्व को ही सर्वस्व माना गया है। इस जगत में कुछ विरल व्यक्तित्व ऐसे होते हैं, जो जन्म से साधारण होते हैं परन्तु अपने पुरूषार्थ, संयम और कर्म से महान बन जाते हैं और जो कर्म से महान बन जाते हैं, वे गुरूकृपा पाकर असाधारण बन जाते हैं।
ऐसी ही महान व्यक्तित्व की धनी थी शासनमाता असाधारण साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी। संघपति के प्रति बेजोड़ समर्पण, अद्भुत प्रशासकीय कार्यशैली, अनुशासित जीवनशैली, संवेदनशील कवि हृदय, कुशल लेखन आदि उनके व्यक्तित्व के ऐसे पहलू हैं, जो उनके आसाधारण होने की संज्ञा को सार्थक बना देते हैं।
आचार्यश्री तुलसी ने जब उन्हे 22 वर्ष की वय मे साध्वी समाज का नेतृत्व सौंपा तब शायद किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि स्वयं आचार्य प्रवर उनके लिए कहेंगे कि -‘साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा की योग्यता, आचार्य पद की योग्यता से कम नहीं है।’ आचार्य तुलसी द्वारा कहे गये ये शब्द उनके व्यक्तित्व की विराटता को प्रदर्शित करते हैं।
आचार्यश्री महाप्रज्ञजी उनके लिए फरमाते थे कि-‘दायित्व उन्हें दिया जाता है, जिनमें योग्यता हो, क्षमता हो। कनकप्रभाजी में दोनों हैं। उनकी विनम्रता को प्रथम श्रेणी में रखा जा सकता है। साध्वीप्रमुखाजी ने योग्यता की कसौटी में शत-प्रतिशत नहीं अपितु सवा सौ प्रतिशत अंक अर्जित किये हैं।’ तेरापथ धर्मसंघ के दार्शनिक आचार्य द्वारा उनके लिए कहे गये ये शब्द उनकी दायित्व निष्ठा एवं योग्यता को परिलक्षित करते हैं।
एकादशम अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने उनके जीवन के हर पहलू का अहोभाव और उदारता के साथ मूल्यांकन करते हुए नव इतिहास का सृजन किया। आचार्यश्री के पदाभिषेक पर साध्वीप्रमुखाजी ने संचालन का दायित्व संभाला और आचार्य प्रवर ने अपने उद्बोधन में महासती, महाशक्ति आदि महनीय शब्दों का प्रयोग किया। गौहाटी चातुर्मास में साध्वीप्रमुखाश्रीजी को ‘असाधारण साध्वीप्रमुखा’ के अलंकरण से संबोधित किया और लाडनूं में आचार्य प्रवर ने उनके प्रति सम्मान की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करते हुए ‘शासनमाता’ के उत्कृष्ट अलंकरण से नवाजा तो सम्पूर्ण धर्मसंघ अपने आपको गौरवान्वित महसूस कर रहा था।
साध्वीप्रमुखाजी की शारीरिक अस्वस्थता की स्थिति मंे जब आचार्य प्रवर को ज्ञात हुआ कि प्रमुखाश्रीजी ने फरमाया है कि ‘गुरुदर्शन की इच्छा है।’ इस संवाद केे प्राप्त होते ही सभी पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों को छोड़कर आचार्य प्रवर तुरंत दिल्ली की ओर उन्मुख हो गए। आचार्य प्रवर ने प्रलंब विहार कर एक ही लक्ष्य सामने रखते हुए कि साध्वीप्रमुखाश्रीजी को दर्शन देकर उनकी मनोकामना को पूर्ण करना है और आचार्य प्रवर ने एक दिन में सर्वाधिक लगभग 47 किलोमीटर का विहार कर न केवल साध्वीप्रमुखाश्रीजी की मनोकामना को पूर्ण किया अपितु स्वयं आचार्य प्रवर ने भी गहरे आत्मतोष का अनुभव किया। जब आचार्य प्रवर हॉस्पिटल में पधारे तो दर्शन देते हुए स्वयं भी साक्षात् प्रदक्षिणा कर वंदन मुद्रा में एक सामान्य साधु की भांति साध्वीप्रमुखाश्रीजी की सुखसाता पुछ रहे थे। वह विरल दृश्य देखकर उपस्थित श्रद्वालु श्रद्धाभिभूत थे। सुदूर क्षेत्रों में बैठे श्रावक समाज ने जब वह दृश्य सोशल मीडिया के माध्यम से देखा तो हर किसी के मुख पर एक ही बात थी कि धन्य हैं ऐसे महान गुरु और धन्य है शासनमाता। हम सभी सौभाग्यशाली हैं कि हमें साधना करने के लिए ऐसा महान धर्मसंघ मिला और हमारा पथदर्शन करने के लिए ऐसे महान आचार्य प्रवर मिले।
साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी तेरापंथ धर्मसंघ में ऐसी साध्वीप्रमुखा थी, जिन्होंने तीन आचार्यों के शासनकाल में उनके पावन दिशा निर्देशन में साध्वीप्रमुखा पद का दायित्व कुशलतापूर्वक निभाया। साधु-साध्वी, समण-समणी हो या श्रावक-श्राविकागण, जो भी उनके उपपात में अपनी भावना प्रस्तुत करता तो साध्वीप्रमुखाश्रीजी से माँ की तरह पावन आशीर्वाद मिलता। वे उनकी हर समस्या को सुनकर समाधान देने का प्रयास करती। इस प्रकार की सारसंभाल मिलने के कारण वे मातृहृदया कहलाती थी।
शासनमाता ने तो रंगों के त्योंहार होली के दिन इस जहां को अलविदा कह दिया, परन्तु सतरंगी संस्कारों की सद्प्रेरणा देने वाली प्रमुखाश्रीजी विदेह आज भी विद्यमान है।प्रथम पुण्यतिथि पर उनकी आत्मा के उत्तरोतर आध्यात्मिक आरोहण एवं चिर लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति की मंगल कामना करते हुए हम स्वयं के प्रति कामना करते हैं कि आपके जीवन से हमें गुरुभक्ति, संघ समर्पण, अनुशासन, दायित्वबोध की प्रेरणा सदैव मिलती रहे। आपका दिव्याशीष हम पर सदैव बना रहे।
शासनमाता नमो नम्ः