मनोनुशासनम्
पहला प्रकरण
वैराग्य ज्ञानयोग का ही प्रकार है। आत्मज्ञान की निर्मलता वैराग्य का रूप ले लेती है। कोई भी आदमी ऐसा नहीं हो सकता जो आत्मज्ञानी नहीं है और विरक्त है। ऐसा भी कोई आदमी नहीं हो सकता जो विरक्त नहीं है और आत्मज्ञानी है। जो आत्मज्ञानी होगा वह विरक्त होगा और जो विरक्त होगा वह आत्मज्ञानी होगा, यह निश्चित व्याप्ति है।
आत्मज्ञान के दो हेतु हैं-निसर्ग और अधिगम। कुछ लोग निसर्ग से ही आत्मज्ञानी होते हैं। अधिगम का अर्थ है गुरु का उपदेश। गुरु के उपदेश से आत्मज्ञान प्राप्त करने वाले नैसर्गिक आत्मज्ञानी की अपेक्षा अधिक होते हैं। नैसर्गिक आत्मज्ञानी ज्ञान के द्वारा मानसिक एकाग्रता प्राप्त करते हैं किंतु गुरु के उपदेश से आत्मज्ञान की दिशा में चलने वाले श्रद्धा के प्रकर्ष से मानसिक एकाग्रता साध लेते हैं। श्रद्धा के प्रकर्ष में विश्वास केंद्रित हो जाता है और मन की तरलता सघनता में बदल जाती है।
ज्ञान और वैराग्य चैतन्य की स्वाभाविक क्रियाएँ हैं। श्रद्धा का प्रकर्ष प्रेरणा से प्राप्त क्रिया है। मन की एकाग्रता केवल इन्हीं से नहीं होती है। वह शरीरसंयम से भी हो सकती है। शरीर की चंचलता अर्थात् मन की चंचलता। शरीर की स्थिरता अर्थात् मन की स्थिरता। शरीर की स्थिरता शिथिलीकरण के द्वारा प्राप्त होती है। शिथिलीकरण की पूरी प्रक्रिया कायोत्सर्ग के प्रकरण में दी जाएगी। शरीर की शिथिलता संकल्प और श्वास-संयम पर निर्भर है। आप पद्मासन या सखासन में बैठकर शरीर को ढीला छोड़ दीजिए और शरीर की शिथिलता का संकल्प कीजिए। शरीर शिथिल हो रहा है, ऐसा अनुभव कीजिए। अनुभव जितना तीव्र होगा, उतनी ही अधिक सफलता प्राप्त होगी।
संकल्प की साधना के पश्चात् श्वास-संयम का अभ्यास कीजिए। यहाँ श्वास-संयम से मेरा अभिप्राय प्राण को सूक्ष्म करने से है। हम जो श्वास लेते हैं, वह स्थूल प्राण है। श्वास लेने की जो शक्ति (श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति) है, वह सूक्ष्म प्राण है। नाभि और नासाग्र पर दो-चार क्षण के लिए मन को एकाग्र कीजिए। सहज ही श्वास-संयम हो जाएगा। श्वास की मंदता या सूक्ष्मता से शरीर की क्रियाएँ सूक्ष्म हो जाती हैं और शिथिलीकरण सध जाता है। शरीर की स्थिरता और श्वास की स्थिरता होने पर मन का निरोध सहज-सरल हो जाता है।
मन की प्रवृत्ति संकल्प और विकल्प के द्वारा बढ़ती है। उसका निरोध होने पर मन का निरोध अपने आप हो जाता है। संकल्प-निरोध और ध्यान में भिन्नता नहीं है। संकल्प का निरोध किए बिना ध्यान नहीं होता और जब ध्यान होता है, तब संकल्प का निरोध होता ही है। फिर भी यहाँ संकल्प-निरोध को मानसिक स्थिरता का ध्यान से भिन्न साधन माना है। उसका एक विशेष हेतु है। उसके द्वारा एक विशेष प्रक्रिया का सूचन किया गया है। संकल्प का प्रवाह निरंतर चलता रहता है। लंबे समय तक उसे रोकने में कठिनाई होती है। इसलिए प्रारंभ में उस प्रवाह की निरंतरता में विच्छेद डालने का अभ्यास करना चाहिए। इस प्रक्रिया को आकस्मिक कुंभक के द्वारा संपन्न किया जा सकता है। आप पूरक और रेचन न करें! एक क्षण के लिए कुंभक करें, वह भी आकस्मिक ढंग से। जैसे कोई बाधा आने पर चलता पैर अकस्मात् रुक जाता है, वैसे ही श्वास को हठात् बंद कर दीजिए। क्षण-भर के लिए कुंभक की मुद्रा में रहिए। जिस क्षण कुंभक होगा, उस क्षण में संकल्प भी उसी प्रकार आकस्मिक ढंग से बंद हो जाएगा। इस क्रिया को पाँच-दस मिनट के बाद फिर दोहराएँ। इस प्रकार बार-बार अभ्यास करने से संकल्प का प्रवाह स्खलित हो जाता है। लंबे समय की एकाग्रता के लिए यह क्रिया पृष्ठ-भूमि का काम करती है।
मानसिक निरोध का प्रबलतम हेतु ध्यान है। जब हम किसी एक विषय पर स्थिर रहने का अभ्यास करते हैं, तब मन की चंचलता को एक स्थान में रोकने का प्रयत्न करते हैं। उच्छृंखलता से विचरने वाली मन की चंचलता का क्षेत्र सीमित हो जाता है, हजारों-हजारों विषयों से हटकर एक विषय में सिमट जाता है, यह मन की चंचलता का गतिभंग है। इसकी बार-बार पुनरावृत्ति होने पर वह गतिभंग गतिनिरोध के रूप में बदल जाता है। गौतम ने पूछा-‘भंते! एक आलंबन पर मन का सन्निवेश करने से क्या लाभ होता है?’ भगवान् महावीर ने कहा-‘गौतम! उससे चित्त का निरोध हो जाता है।’
चित्त-निरोध की प्रक्रिया गुरु के उपदेश से प्राप्त होती है और प्रयत्न की बहुलता से उसकी सिद्धि होती है। मन की स्थिरता जान लेने मात्र से नहीं होती। इसके लिए अनेक प्रयत्न करने होते हैं, लंबे समय तक निरंतर और श्रद्धा के साथ। कोई व्यक्ति मानसिक स्थिरता का अभ्यास करता है, उसमें पूरा समय नहीं लगाता अर्थात् तीन घंटे का समय नहीं लगता, उसे पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं होती। थोड़ा समय लगाने से कुछ लाभ अवश्य होता है किंतु कोई भी आदमी स्वल्प प्रयत्न से शिखर तक नहीं पहुँचता।
जिसका चित्त अनवस्थित होता है-कभी स्थिरता का अभ्यास करता है, कभी नहीं करता, इस प्रकार कभी-कभी अभ्यास करने वाला भी सफलता से वंचित रहता है। लंबे समय तक और निरतर अभ्यास करने वाला भी श्रद्धा के बिना सफल नहीं हो सकता। श्रद्धा का अर्थ है, तन्मय हो जाना; ध्येय के प्रति समर्पित हो जाना या उसमें विलीन हो जाना। गुरु का उपदेश-ध्यान की प्रक्रिया की शिक्षा, श्रद्धा, दीर्घकालीन और निरंतर अभ्यास-इस पूर्ण सामग्री के प्राप्त होने पर मानसिक एकाग्रता या निरोध की साधना सरल हो जाती है।
(क्रमशः)