नयनों के मोती पूछ रहे
अर्हम्
नयनों के मोती पूछ रहे
हे सुधामयी! तुम कहाँ गई?
प्राणों के पंछी ढूँढ़ रहे,
शासनमाता! तुम कहाँ गई?
गंगा की निर्मल धारा सम
सबको पावन करती पल-पल।
पीकर घट-घट के अंधियारे,
तुम स्वयं बनी शाश्वत उज्ज्वल।
समता के दीप जला करके,
तुम कहाँ गई, तुम कहाँ गई?
कितनी कलियों को वत्सलता से
सिंचन देकर विकसाया।
मुरझाते पौधों को बयार,
वासंती बनकर दुलराया।
सुरभित करके गण उपवन को
तुम कहाँ गई, तुम कहाँ गई?।।
सौ-सौ आँखों से सदा अरे!
तुम पीर देखती थी पर की।
मुस्कान एक मधुमय तेरी
हर व्यथा मिटाती अंतर की।
मृदु आश्वासन का खोल खजाना
कहाँ गई तुम कहाँ गई?।।
जहमत के बादल जब छाते,
रहमत की आँधी बन जाती।
मुश्किल चाहे जितनी आए
साहस की राहें दिखलाती।
श्रद्धा-संजीवन-पान करा
तुम कहाँ गई तुम कहाँ गई?।।
हाथों में थाम कलम पैनी
शब्दों के चित्र सजाती थी
भावों को बाँध छंद-लय में
श्रुत की रसधारा बहाती थी
गढ़ शब्द शिल्पियों की जमात
तुम कहाँ गई तुम कहाँ गई?।।