अर्हम

अर्हम

अर्हम

सौम्याकृति सहजानंदी, श्रमणी गण की हो अभिमान।

विनय समर्पण मूरत न्यारी, मनहर कनकप्रभा अभिधान।।

माँ की शीतल छाँह तले, गगन भी सिमट जाता है।
चाँद तारे फीके लगते, सूरज निस्तेज हो जाता है।
क्यों उगी वो चव्दस की भोर, जो तुमको हमसे ले गई।
निर्दयी जग की शाश्वत रीतें, कहर बन कर ढह गई।।

युगानुरूप चिंतन धारा ने, तुमको युगानुकूल बनाया।
जो आया तब चरणों में, तेरा ही गुण-गौरव गाया।
ऊर्जा के अजस्र प्रवाह का, उत्स कहाँ था, प्रश्न मन में।
समाहित हुआ मन मेरा, गुरु त्रय महासागर वचन में।।

वो अनुशासन की मृदु बयार, सेवा में सजग फरमान।
विश्राम होता मानो कागज पर लेखनी को कर गतिमान।
कहाँ निहारूँ उन दृश्यों को, बतला दो मुझको वो स्थान।
हाथ सहारे स्थित वदन है जहाँ देखूँ ओजस्वी प्रतिमान।।