साध्वी जिनप्रभा
अर्हम्
मुनिवर! शासन महिमा महकाई, श्रम की मूरत मनभाई,
श्रुत सेवा आजीवन इकसार है
हो मुनिवर! जनमानस में यादें साकार हैं।
मोहमयी मुंबई नगरी से बने आप निर्मोही,
महारथिक गुरु तुलसी कर से संयम रथ आरोही,
तीनों गुरुओं के थे दिलवासी, गुरुचरणों मथुरा काशी,
प्रेक्षा से खोला प्रज्ञा द्वार है।
पुण्यात्मा थे, भव्यात्मा थे सहज सरल व्यवहारी,
विद्वत्ता के साथ विनोदी भाव रहा सहचारी,
लेखन भाषण की अद्भुत शैली, गुण गाथा गण में फैली,
चिंतन मंथन से निकला सार है।
मुंबई के जौहरी थे पक्के, चुनते हीरे मोती,
उन मुक्ता हीरों से अनुपम मेधा हार पिरोती,
आगम सागर में डुबकी लेते, पौरुष से नैया खेते,
रहते हर पल हर क्षण गुलजार।
प्रभुवर अभिनंदन में मुनिवर ने उत्कर्ष चलाया,
मुंबई के घर-घर में मानो श्रुत का दीप जलाया,
श्रावक समुदाय में जोश जगाया, स्वागत का रंग चढ़ाया,
असमय में क्यों पहुँचे सुरद्वार है।
लय: सन्तां! शासण ओ स्वामीजी रो